SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं २८७ साद-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०-पंचंतः। णवरि सादा०-हस्स-रदीणं गिरय०णिरयाणु० वज० । अप्पसत्थ०-दुस्सर० सिया० संखेजदिमागूणं बं०। ४५७. इथि० उक्क० पदे०७० पंचणा०-णवदंसणा०-[मिच्छ०-सोलसक० भयद पंचंत० णि..णि. उक्क]। दोवेद०चद णोक०-देवगदि०४-दोगोद०' सिया० उक्क० । दोगदि-ओरालि हुंड०-ओरालि अंगो०-असंप०-दोआणु०-उज्जो०-अप्पसत्थ०थिरादितिण्णियुग०-भग-द स्सर-अणादे० सिया० संखेजदिमागणं०। पंचिंदि०तेजा-क०-वण्ण०४-अगु०४-तस०४-णिमि०णि०६० संखेजदिभागणं बं० । पंचसंठा०पंचसंघ०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदे० सिया० तं तु० संखेजदिमाग णं० । एवं पुरिस। ४५८. णिरयाउ० उक्क० पदे०६० पंचणा०-[णवदंस०-असादा०-मिच्छ-सोल] स०-णस०-अरदि-सोग-भय-दु-णिरयगदिअट्ठावीस-णीचा०-पंचंत० णि० बं० णि.3 ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय और पाँच अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय, हास्य और रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। तथा इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव अप्रशस्तविहायोगति और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ४५७. स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, चार नोकषाय, देवगतिचतुष्क और दो गोत्रका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्र करता है। दो गति, औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासपाटिकासंहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है ज नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदयका कदाचित बन्ध करता है और कदाचित बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ४५८. नरकायुका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियाँ, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका 1. ता प्रती 'पंचणा......[ कोधोवेद० चदुणोक० देवगदि. ४] दोगो०' प्रा०प्रती 'पंचणा. णवदसणा०को दोवेद० चदुणोक. देवगदि०४ दोगोद.' इंति पाठ। २. ता०प्रतौ 'पंचणा....... [णवदसणा० असाद० मिच्छ० सोलसक० णवूस० अरदि सोगभयदु.] णिरयगदिअट्ठावीसं' श्रा०प्रती 'पंचणा...."णqस० अरदि सोग भय दु. णिरयगदिअट्ठावीसं' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ 'णि• [0] णि पंचंत. णि.' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy