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________________ महाधे पदेसबंधाहियारे संखेजदिभागणं । एवं तिष्णं आउगाणं अष्पष्पणो पगदीहि दव्वा । * ४५९. णिरय० उक्क० पदे०चं० पंचणा० णवदंसणा० - असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-बुंस०-अरदि-सोग-भय-दु०-णीचा०-पंचत० णि० चं० णि० उक्क० । णामाणं सत्थाण० भंगो | णामाणं हेडा उवरि णिरयगदिभंगो । णामाणं अष्पष्पणो सत्थाणभंगो कादव्वो । वरि देवग० पंचणा० णवदंस०-मिच्छ०' - सोलसक० -भय-दु० - उच्चा० पंचंत ० णि० चं० णि० उक्क० | सादासाद० छणोक० सिया० उक्क० । णामाणं सत्थाण०भंगो | एवं देवगदि ०४ । णवरि वेउव्वि० दुगस्स णवंस० णीचागोदं पि अस्थि । समचदु० उक्क० पदे०चं० देवगदिभंगो । एवं पसत्थवि ० - सुभग-सुस्सरआदेजाणं । चदुसंठा० - पंचसंघ० ३ उक्कस्सं प०बंधंतो णीचुच्चागो० सिया० उक्क० । दोगोदं तिरिक्खगदिभंगो० एवं विभंग० - अब्भव० - मिच्छा० - असण्णि त्ति । 3 २८८ नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार शेष तीन आयुओं की मुख्यता से अपनी-अपनी प्रकृतियों के साथ सन्निकर्ष जान लेना चाहिए । ४५९. नरकगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है | नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानसन्निकर्षके समान है। नामकर्मकी अन्य प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्म से पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग नरकगतिकी मुख्यता से इन प्रकृतियों के कहे गये सन्निकर्षके समान है । तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग अपने-अपने स्त्रस्थान सन्निकर्षके समान है। इतनी विशेषता है कि देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, उमगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और छह नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार देवगति चतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकद्विकका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवालेके नपुंसकवेद और नीचगोत्र भी है । समचतुरस्त्रसंस्थानका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके देवगतिकी मुख्यता से कहे गये सन्निकर्षके समान भङ्ग है । इसी प्रकार प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुवर और आयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । चार संस्थान और पाँच संहननका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, नीचगोत्र और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । दो गोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष तिर्यञ्चगतिमें इनकी मुख्यता से जिस प्रकार सन्निकर्ष कहा है उसके समान है । जो विशेष हो वह जान लेना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् मत्यज्ञानी जीवोंके समान त्रिभङ्गज्ञानी, अभव्य, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों में जानना चाहिए। सादासादा० सत्तणोक ०। विसेसो जाणिदव्वो । १. ता०श्रा० प्रत्योः 'णवरि स० मिच्छ०' इति पाठः । २ ता० प्रती 'सादासाद० णोक०' पती 'सादासाद सत्तणोक०' इति पाठः । ३ ता०प्रतौ 'आदेजाणं चदुसंठा० । पंचसंघ०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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