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________________ महाबँधे पदेसंबंधाहियारे चदुसंजलणाणं द्दिाए भंगो । चत्तारिआउ० ओघो । णामाणं सव्वाणं माणकसाइभंगो । वरि कोधसंज० णि० दुभागणं० । माणसंज० सादिरेयं दिवsभागूणं । मायालोभसंज० णि० बं० संखेजगुणही ० । णवरि जस० बं० चदुसंज० चक्खुदंस० भंगो । लोभकसाइसु मूलोघं । ४५६. मदि० - सुद० आभिणि० उक० पदे०बं० चदुणा० णवदंस० - मिच्छ०सोलसक० -भय-दु० - पंचंत० णि० चं० णि० उक्क० । सादासाद०० सत्तणोक० - वेउव्वियछ०आदाव - दोगो० सिया० उक्क० । दोगदि-पंचजादि-ओरालि० छस्संठा० -ओरालि० अंगो०छस्संघ० - दोआणु०-उजो० दोविहा० तसादिदसयु० सिया० तं० तु० संर्खेजदिभागूणं बं० । तेजा० क० - वण्ण०४- अगु० - उप० - णिमि० णि० तं तु ० संखेजदिभागूणं वं० । पर० - उस्सा ० सिया० तं तु ० संखेज दिभागूणं ० ' । एवं चदुणा० णवदंसणा ० -सादा 1 २८६ है कि इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके चार संज्वलनका भङ्ग निद्राकी मुख्यता से कहे ये सन्निकर्ष समान है । चार आयुओंकी मुख्यतासे सन्निकर्षका भङ्ग ओधके समान है । नामकर्मकी सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष मानकषायवाले जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव क्रोधसंज्वलनका नियम से बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मानसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियों में से इतनी और विशेषता है कि यशःकीर्ति का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके चार संज्वलनोंका भङ्ग चक्षुदर्शनावरणकी मुख्यता से कहे गये सन्निकर्ष के समान है । लोभकषायवालोंमें मूलोघ के समान भङ्ग है । ४५६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में आभिनित्रोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकपाय, वैक्रियिक छह, आतप और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । दो गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्यत, दो विहायोगति और त्रसादि दस युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । परघात और उच्छ्वासका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अष्ट प्रदेश करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार चार १. ताप्रतौ 'सिया० संखेजदिभागूणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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