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________________ उवणिधापरूवणा १३. ठाणपरूवणदाए असंखेंजाणि फद्दयाणि सेडीए असंखेंजदिभागमैत्ताणि जहण्णयं जोगट्ठाणं भवदि । एवं असंखेंजाणि योगहाणाणि सेडीए असंखेंजदिभागमेत्ताणि । १४. अणंतरोवणिधाए जहण्णजोगट्ठाणे फद्दयाणि थोवाणि । विदिए योगहाणे फदयाणि विसेसाधियाणि । तदिए योगट्ठाणे फद्दयाणि विसे । एवं विसे० विसे० याव उक्कस्सए योगट्टाणे ति । विसेसो पुण अंगुलस्स असंखेंजदिभागमेताणि फद्दयाणि । अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। उदाहरणार्थ प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके प्रत्येक प्रदेशमें आठआठ अविभागप्रतिच्छेद हैं, इसलिए यहाँ असंख्यात लोकका प्रमाण चार मानकर इतना अन्तर देकर द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके प्रत्येक प्रदेशमें तेरह-तेरह अविभागप्रतिच्छेद होंगे । इसी प्रकार आगे सब स्पर्धकांमें अन्तर दे-देकर उनकी वर्गणाओंके उक्त प्रकारसे अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। आगे इन स्पर्धकोंके आधारसे स्थानकी उत्पत्ति कैसे होती है,यह बतलाते हैं १३. स्थानप्ररूपणाकी अपेक्षा असंख्यात स्पर्धक, जो कि जगणिके असंख्यातवें भाग । हैं, मिलकर जघन्य योगस्थान होता है। इस प्रकार असंख्यात योगस्थान होते हैं, क्योंकि उनका प्रमाण जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-पहले हम जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्धकोंका निर्देश कर आये हैं । वे सब स्पर्धक मिलकर एक जघन्य योगस्थान होता है। यह सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक एक जीवसम्बन्धी योगस्थान है। इसी प्रकार अन्य अन्य जीवोंके सब प्रदेशों में रहनेवाली योगशक्तिके आश्रयसे अन्य-अन्य योगस्थानकी उत्पत्ति होती है। इस हिसाबसे सब योगस्थानों की परिगणना करने पर वे जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। यहाँ प्रश्न यह है कि जबकि एक-एक जीवके आश्रयसे एक-एक योगस्थान बनता है और जीव अनन्तानन्त हैं ,ऐसी अवस्थामें अनन्तानन्त योगस्थान होने चाहिए, न कि जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण । समाधान यह है कि जीव अनन्तानन्त होकर भी योगस्थान जगश्रोणिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं, क्योंकि एक जीवके जो योगस्थान होता है, अन्य बहुतसे जीवोंके वही योगस्थान सम्भव है। उदाहरणस्वरूप साधारण वनस्पतिको लीजिये । साधारणवनस्पतिके एक-एक शरीरमें अनन्तानन्त निगोद जीव रहते हैं, जिनके आहार और श्वासोच्छ्रास आदि समान होते हैं। वे एक साथ मरते हैं और एक साथ उत्पन्न होते हैं, अतः इन जीवोंके समान योगस्थानके होने में कोई बाधा नहीं आती। इसी प्रकार अन्य जीवोंके भी समान योगस्थानोंका प्राप्त होना सम्भव है, अतः जीवराशिके अनन्तानन्त होने पर भी योगस्थान सब मिलाकर जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होते हैं, यह सिद्ध होता है। अब आगे इन योगस्थानौमें समान स्पर्धक न होकर उत्तरोत्तर अधिक स्पर्धक होते हैं,यह बतलाते हैं १४. अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा जघन्य योगस्थानमें स्पर्धक सबसे थोड़े होते हैं । इनसे दसरे योगस्थानमें स्पर्धक विशेष अधिक होते हैं। इनसे तीसरे योगस्थानमें स्पर्धक अधिक होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक वे उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते हैं । यहाँ विशेषका प्रमाण अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्धक है। विशेषार्थ-एक योगस्थानमें कुल स्पर्धक जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं,यह हम पहले बतला आये हैं। इस हिसाबसे सब योगस्थानोंमें वे उतने-उतने ही होते होंगे यह शंका होती है, अतएव इस शंकाका परिहार करनेके लिये यह अनन्तरोपनिधा अनुयोगद्वार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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