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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ११. फद्दयपरूवणदाए असंखेंजाओ वग्गणाओ' सेडीए असंखेंअदिमागमैत्तीओ एयं फद्दयं भवदि । एवं असंखेंजाणि फद्दयाणि सेडीए असंखेंजदिभागमेत्ताणि । १२. अंतरपरूवणदाए ऍक्कॅकस्स फद्दयस्स केवडियं अंतरं ? असंखेंजा लोगा अंतरं । एवडियं अंतरं । है और इसी विचारके परिणामस्वरूप योगका निरूपण अविभागप्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक और योगस्थान इत्यादि अधिकारों द्वारा किया जाता है। अविभागप्रतिच्छेदोंका विचार तो किया ही है। वे जितने जीवप्रदेशों में समानरूपसे पाये जाते हैं उन जीव प्रदेशोंकी वर्गणा संज्ञा है। पुनः इनसे आगेके जीवप्रदेशोंमें एक अविभागप्रतिच्छेद अधिक पाया, इसलिये इन जीवप्रदेशोंकी दूसरी वर्गणा बनती है। पुनः इनसे आगेके जीव प्रदेशोंमें दो अधिक अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं, इसलिये इन जीव. प्रदेशोंकी तीसरी वर्गणा बनती है। इस प्रकार एक-एक अविभागप्रतिच्छेद अधिकके क्रमसे उत्तरोत्तर चौथी आदि वर्गणाएँ बनती हैं जो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। इस प्रकार वर्गणाओंका विचार किया । आगे स्पर्धकका विचार करते हैं ११. स्पर्धकप्ररूपणाकी अपेक्षा असंख्यात वर्गणाएँ, जो कि जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं, मिलकर एक स्पर्धक होता है। इस प्रकार असंख्यात स्पर्धक होते हैं, क्योंकि ये जगश्रेणिके असंख्यातवे भागप्रमाण होते हैं । विशेपार्थ-पहले जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण वर्गणाओंका विचार कर आये हैं । उन सब वर्गणाओंका समुदाय प्रथम स्पर्धक होता है। इसी प्रकार अन्य-अन्य जगणिके असंख्यात भागप्रमाण वर्गणाओंका अन्य-अन्य स्पर्धक बनता है और ये सव स्पर्धक भी मिलकर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। इस प्रकार स्पर्धकोंका विचार कर आगे इनके अन्तरका विचार करते हैं १२. अन्तरप्ररूपणाकी अपेक्षा एक-एक स्पर्धकके बीच कितना अन्तर होता है? असंख्यात लोकप्रमाण अन्तर होता है । इतना अन्तर होता है। विशेषार्थ-पहले हम जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्य-अन्य वर्गणाएँ मिलकर एक-एक स्पर्धक बनता है, यह बतला आये हैं। वहाँ हमने यह भी बतलाया है कि एक-एक स्पर्धकके भीतर जितनी वर्गणाएँ होती हैं, उनमें प्रथम वर्गणासे लेकर अन्तिम वर्गणा तक प्रत्येक वर्गणामें एक एक अबिभागप्रतिच्छेद बढ़ता जाता है। उदाहरणार्थ प्रथम स्पर्धकमें चार वर्गणाएँ हैं और प्रथम वर्गणाके जीवप्रदेशोंमें पाँच-पाँच अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं . तो दूसरी वर्गणाके जीवप्रदेशों में छह-छह, तीसरी वर्गणाके जीवप्रदेशोंमें सात-सात और चौथी वर्गणाके जीव प्रदेशोंमें आठ-आठ अविभागप्रतिच्छेद पाये जावेंगे। अब विचार इस बातका करना है कि क्या जैसे प्रथम स्पर्धककी प्रत्येक वर्गणामें एक-एक अविभागप्रतिच्छेद अधिक पाया जाता है,उसी प्रकार प्रथम स्पर्धकको अन्तिम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणामें एक अधिक ही अविभागप्रतिच्छेद पाया जावेगा या इनके बीच कोई अन्तर है और यदि अन्तर है तो वह कितना है ? इसी प्रश्नका उत्तर देनेके लिये यह अन्तर प्ररूपणा आई है। इसमें बतलाया गया है कि एक-एक स्पर्धकके बीच असंख्यात लोकप्रमाण अन्तर है। इसका आशय यह है कि अनन्तरपूर्व स्पर्धककी अन्तिम वर्गणामें जितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं उनसे असंख्यात लोकप्रमाण अविभागप्रतिच्छेदोंका अन्तर देकर आगेके स्पर्धककी प्रथम वर्गणामें १. आ० प्रती असंखेजदिवग्गणाओ इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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