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योगद्वाणपरूवणा
योगद्वाणपरूवणा
८. योगहाणपरूवणदाए तत्थ इमाणि दस अणियोगद्दाराणि - अविभागपलिच्छेदपरूवणा वग्गणापरूवणा फद्दयपरूवणा 'अंतरपरूवणा ठाणपरूवण । अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा समयपरूवणा वड्डिपरूवणा अप्पाबहुगे त्ति ।
९. अविभागपलिच्छेदपरूवणदाए ऍक्कम कम्हि जीवपदेसे केवडिया अविभागपरिच्छेदा ? असंखेजा लोगा अविभागपलिच्छेदा । एवडिया अविभागपलिच्छेदा । १०. वग्गणपरूवणदाए असंखे लोगा योगअविभागपलिच्छेदा एया वग्गणा भवंदि' । एवं असंखॆजाओ वग्गणाओ सेडीए असंखेजदिभागमेतीओ |
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योगस्थानप्ररूपणा
८. योगस्थानप्ररूपणामें ये दस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ।
९. अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा में जीवके एक-एक प्रदेशमें कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ? असंख्यात लोकप्रमाण अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । इतने अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं ।
विशेषार्थ — बुद्धिद्वारा शक्तिका छेद करने पर सबसे जघन्य शक्त्यंशको वृद्धिका नाम प्रतिच्छेद संज्ञा है । यह वृद्धि अविभाज्य होती है, अतः इसे अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं । प्रकृतमें योगशक्ति विवक्षित है । जीवके प्रत्येक प्रदेश में इस योगशक्ति के देखने पर वह असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिच्छेदों से युक्त योगशक्तिको लिये हुये होता है । यद्यपि यह योगशक्ति किसी जीवप्रदेशमें जघन्य होती है और किसी जीवप्रदेशमें उत्कृष्ट, पर अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा विचार करने पर वह असंख्यात लोकप्रमाण अविभागप्रतिच्छेदोंका लिये हुए होकर भी जघन्यसे उत्कृष्ट में असंख्यातगुणे अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । उदाहरणार्थ - एक शुक्ल वस्त्र लीजिये । उसके किसी एक अवयवमें कम शुलता होती है और किसी में अधिक । जिस प्रकार उस वस्त्रमें शुक्लगुणका तारतम्य दिखाई देता है, उसी प्रकार जीवके प्रदेशों में भी योगशक्तिका तारतम्य दिखाई देता है । इससे विदित होता है कि इस तारतम्यका कोई कारण होना चाहिए । यहाँ तारतम्यका जो भी कारण है उसीका नाम अविभागप्रतिच्छेद है । इन अविभागप्रतिच्छेदों के क्रमसे वर्गणा कैसे उत्पन्न होती है, आगे इसी बातका विचार किया जाता है ।
१०. वर्गणाप्ररूपणाकी अपेक्षा योगके असंख्यात लोकप्रमाण अविभागप्रतिच्छेद मिलकर एक वर्गणा होती है । इस प्रकार असंख्यात वर्गणाएँ होती हैं, क्योंकि ये जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं ।
विशेषार्थ —- पहले हम प्रत्येक प्रदेशगत योगके अविभागप्रतिच्छेदों का विचार कर हैं। उत्तरोत्तर वृद्धिरूप ये अविभागप्रतिच्छेद सभी जीव प्रदेशों में उपलब्ध होते हैं । कारण कि योग सब प्रदेशों में समान रूपसे नहीं उपलब्ध होता । उदाहरणार्थ दाहिने हाथ से वजन उठाने पर इस हाथके प्रदेशोंमें जितना अधिक खिंचाव दिखाई देता है, उतना खिंचाव कंधेके पासके प्रदेशों में नहीं दिखाई देता । तथा कंधेके प्रदेशों में जितना खिंचाव दिखाई देता है, उतना खिंचाव शरीरके अन्य अवयवोंके प्रदेशों में नहीं प्रतीत होता । इसलिये सब जीवप्रदेशों में योगशक्तिको हीनाधिकता के कारण उसका तारतम्य किस क्रमसे उपलब्ध होता है, यह विचार करना पड़ता
१. प्रत्योः भवन्ति इति पाठः ।
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