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________________ महाधंधे पदेसबंधाहियारे बेइं०-तेइं०-चदुरिं०- पंचिं०-असण्णि-सण्णिअपञ्जत्तयस्स उक० असं०गुणो। तस्सेव पज्जत्तयस्स जह• योगो असं०गुणो। तस्सेव पन्ज० उक्क० असं०गुणो। एवमेककस्स जीवस्स योगगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेंजदिभागो । ७. पदेसअप्पाबहुगे त्ति । सव्वत्थोवा सुहुम अपज० जहण्णयं पदेसग्गं। बादर०अपज० जह० पदे० असं०गु० । बेइंतेइ-चदुरिं०-पंचिं०असण्णि-सण्णि अपज. जह० पदे० असं०गु० । एवं यथा योगअप्पाबहुगं तथा णेदव्वं । णवरि विसेसो एवमेकेकस्स पदेसगुणगारो पलिदो० असंखेंजदिभागो । एवं अप्पाबहुगं समत्त । अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय असंज्ञी अपर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट योग उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा है। इससे इन्हीं पर्याप्त जीवोंके जघन्य योग उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा है। इससे इन्ही पर्याप्त जीवोंके उत्कृष्ट योग उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा है। इस प्रकार यहाँ एक-एक जीवके योगका गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-मन, वचन और कायका आलम्बन लेकर जीवमें जो आत्मप्रदेशपरिमंद रूप शक्ति उत्पन्न होती है उसे योग कहते हैं । यह योग आलम्बनके भेदसे तीन प्रकारका हैमनोयोग, वचनयोग और काययोग । यह सामान्य लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवसे लेकर सयोगिकेवली तक सब संसारी जीवोंके उपलब्ध होता है । उसमें भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवके यह सबसे जघन्य होता है और संज्ञी पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवके उत्कृष्ट होता है। बीच में जीवसमासके भेदसे जघन्य और उत्कृष्ट योग किस क्रमसे होता है, यह मूलमें बतलाया ही है। ७. प्रदेशअल्पबहुत्वका विचार करनेपर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवके जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक हैं । इनसे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवके जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे हैं । इनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय असंज्ञी अपर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्त जीवके जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार आगे योग अल्पबहुत्वके समान यह अल्पबहुत्व जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषताहै कि एक-एक जीवके प्रदेशगुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-पहले योगअल्पबहुत्व का कथन कर आये हैं। प्रदेशअल्पबहुत्व उसीके समान है। यहाँ प्रदेशअल्पबहुत्वसे उत्तरोत्तर कितने गुणे प्रदेशोंका बन्ध होता है, यह बतलाया गया है। सबसे जघन्य योग सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके होता है, अतएव इस योगसे इसी जीवके सबसे जघन्य प्रदेशबन्ध होता है। इससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य योग असंख्यातगुणा होता है, इसलिए सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके जितने कम परमाणुओंका बन्ध होता है उनसे असंख्यातगुणे कर्मपरमाणुओंका बन्ध होता है। पहले योग अल्पबहुत्व बतलाते समय असंख्यातगुणेमें असंख्यात पदका अर्थ पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग लिया गया है,यह कह आये हैं। वैसे ही इस अल्पबहुत्व में भी असंख्यातगुणेमें असंख्यात पदका अर्थ पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग लेना चाहिए। इस प्रकार संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा प्रदेशबन्ध होता है,ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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