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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे १५. परंपरोवणिधाए जहण्णगे योगहाणे फद्दगेहिंतो सेडीए असंखेंजदिभागं गंतूण दुगुणवड्डिदा। एवं दुगुण, दुगुण. याव उकस्सए योगट्ठाणे त्ति । एयजोगदुगुणवड्डिाणंतरं सेडीए असंखेंजदिभागो । णाणाजोगदुगुणवड्डिहाणंतरं पलिदोवमस्स असंखेंजदिभागो। णाणाजोगदुगुणवड्ढिटाणंतराणि 'थोवाणि । एयजोगदुगुणवड्डिट्ठाणंतरं असंखेंजगुणं । आया है। इसमें बतलाया गया है कि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके भवके प्रथम समयमें होनेवाले जघन्य योगस्थानमें जितने स्पर्धक होते हैं,उनसे द्वितीय योगस्थानमें वे अंगुलके असंख्यातवें भाग अधिक होते हैं। आगे इसी क्रमसे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके प्राप्त होनेवाले योगस्थान तक वे उत्तरोत्तर अधिक-अधिक होते जाते हैं। अब यहाँ यह देखना है कि वे उत्तरोत्तर अधिकअधिक कैसे होते जाते हैं। बात यह है कि जघन्य योगस्थानके प्रत्येक स्पर्धककी प्रत्येक वर्गणामें जितने जीवप्रदेश होते हैं, उनसे द्वितीयादि योगस्थानोंके प्रत्येक स्पर्धककी प्रत्येक वर्गणामें वे उत्तरोत्तर हीन-हीन होते हैं, क्योंकि अधिक अधिक योगशक्तिवाले जीवप्रदेशांका उत्तरोत्तर न्यून-न्यून प्राप्त होना स्वाभाविक है और इसलिये प्रथमादि योगस्थानोंके स्पर्धकोंसे द्वितीयादि योगस्थानोंके स्पर्धकोंकी उत्तरोत्तर संख्या बढ़ती जाती है। इस प्रकार अन्तरोपनिधाका विचारकर परम्परोपनिधाका विचार करते हैं १५. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा जघन्य योगस्थानमें जो स्पर्धक हैं, उनसे जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर स्पर्धकोंकी दूनी वृद्धि होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक दूनी-दूनी वृद्धि जाननी चाहिए। एकयोगद्विगुणवृद्धिस्थानान्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है और नानायोगद्विगुणवृद्धिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तदनुसार नानायोगद्विगुणवृद्धिस्थानान्तर स्तोक हैं और इनसे एकयोगद्विगुणवृद्धिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। विशेषार्थ-पहले अनन्तरोपनिधामें यह बतलाया था कि जघन्य योगस्थानके स्पर्धकोंसे दूसरे योगस्थानमें तथा इसी प्रकार आगे-आगे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्धकोंकी वृद्धि होती जाती है। अब यहाँ इस अनुयोगद्वार में यह बतलाया गया है कि इस प्रकार एकसे दूसरेमें, दूसरेसे तीसरेमें और तीसरे आदिसे चौथे आदिमें स्पर्धकोंकी वृद्धि होती हुई वह जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने पर दूनी हो जाती है। तात्पर्य यह है कि प्रथम योगस्थानमें जितने स्पर्धक होते हैं, उनसे जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थान आगे जाने पर वहाँ अन्तमें प्राप्त होनेवाले योगस्थानमें वे दूने हो जाते हैं। पुनः यहाँ अन्तमें प्राप्त होनेवाले योगस्थानमें जितने स्पर्धक होते हैं, उनसे जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थान जाने पर वहाँ अन्तमें प्राप्त होनेवाले योगस्थानमें वे दूने हो जाते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक यह दूने-दूने स्पर्धक होने का क्रम जान लेना चाहिये। इस प्रकार जहाँ-जहाँ जाकर स्पर्धकोंकी दूनी-दूनी वृद्धि हुई,ऐसे स्थानोंका यदि योग किया जाय तो वे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होते हैं। ये नानाद्विगुणवृद्धिस्थान हैं और यह तो बतला ही आये हैं कि जघन्य योगस्थानमें जितने स्पर्धक हैं,उनसे जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थान जानेपर वहाँ जो योगस्थान प्राप्त होता है उसमें दूने स्पर्धक होते हैं । ये एकयोगद्विगुणवृद्धिस्थान हैं। इसलिए एक योगद्विगुणवृद्धिस्थान जगश्रेणिके असंख्यातवे भागप्रमाण होते हैं,यह सिद्ध ही है। अएतव नानाद्विगुणवृद्धिस्थानोंका अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे वह थोड़ा है और एक योगद्विगुणवृद्धिरूप दो योगस्थानोंके मध्य योगस्थानोंका यदि अन्तर अर्थात् व्यवधान लिया जाय तो वह जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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