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उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं
२५५ भागणं बं० । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं मणुसग० । पंचजादि-ओरालि०-पंचसंठा०
ओरालि अंगो०पंचसंघ०-दोआणु०-पर०-उस्सा०-आदाउजो० - अप्पसत्थ०-तसादिचदुयुगल-थिरादितिण्णियुग०-दूभग-दुस्सर-अणार्दै० . हेट्ठा उवरिं० तिरिक्खगदिभंगो। णवरि चदुसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० इत्थि०-णवूस०-उच्चा० सिया० उक० । पुरिस० सिया० अणंतभागणं च । णामाण सत्थाणभंगो।
४०६. देवग० उक्क० पदे०५० पंचणा०-छदंसणा० बारसक-पुरिस-भय-दु०उच्चा०-पंचंत० णि० ० णि. उक्क० ।- दोवेदणी०-चदुणोक० सिया० उक्क० । वेउवि-समचदु०-वउवि०अंगो०-देवाणुपु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदेंज. णियमा उक्कस्सं । एवं देवगदिभंगो वेउब्बि०-समचद् ०-बेउव्वि०अंगो०-देवाणु०-पसत्थ० सुभगसुस्सर-आदे।
४०७. तित्थ० उक्क० पदे०० हेट्ठा उवरिं देवगदिभंगो । णामाणं सत्थाणभंगो।
४०८. उच्चा० उक्क० पदे०२० पंचणा-पंचंत० णि० ब० णि० उक्क० । थीणगिद्धि ०३-दोवेदणी०-मिच्छत्त०-अणंताणु०४-इत्थि०णस० - चदुसंठा० - पंचसंघ०. मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। पाँच जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, सादि चार युगल, स्थिरादि सीन युगल, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयकी मुख्यतासे नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यश्चगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान है । इतनी विशेषता है कि चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, और उच्चगोत्रका कदाचित् वन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकमकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
४०६. देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, वारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् वन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार देवगतिके समान वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वेक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्प समझना चाहिए।
४०७. तीर्थङ्करप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग देवगतिकी मुख्यतासे इन प्रकृतियोंके कहे गए सन्निकर्षके समान है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
४०८. उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार संस्थान, पाँच संहनन,
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