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________________ २५४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे बं । एवं चदुदंस-बारसक०-सत्तणोक० । ४०४. इथि० उक्क० पदे०व० पंचणा०-थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४पंचंत० णि. वणि० उक० । छदसणा०-बारसक०-भय-दु० णि० ब० अर्णतभागूणं वं। दोवेद०-दोगोद० सिया० उक० । चदुणोक० सिया० अणंतभागणं बं० । दोगदि-दोसंठा०-असंपत्त०-दोआणु०-उजो०-पसत्थ०-थिरादितिण्णियुग०-सुभग-सुस्सरआदें सिया० संखेंजदिभागणं बं० । चदुसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० सिया० तंन्तु० संखेंजदिभागणं' ब । सेसाणं णियमा संखेजदिभागणं बं०।। ४०५. तिरिक्ख० उक्क० पदे०७० पंचणा०-थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४णस०-णीचा०-पंचंत० णि० बं० णि० उक्क० । छदंस०-बारसक०-भय-द • णि० बं० णि० अणंतभागणं ब । दोवेदणी० सिया० उक्क० । चदुणोक० सिया० अणंतहै। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार चार दर्शनावरण, बारह कपाय, और सात नोकपायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ४०४. स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धीचतुष्क और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कपाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दा वेदनीय और दो गोत्र का कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो गति, दो संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर और आदेयका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति आर दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। शेष प्रकृतियों का नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । ४५. तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुण्क नपुंसकवेद, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । छह दर्शनावरण, बारह कपाय, भय और जुगुप्साका नियमसे वन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीयका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकमकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार मनुष्यगतिकी. १. आ०प्रती 'सिया० संखेजदिभागूणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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