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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सगियासं २५३ छस्संठा०-दोअंगो०-छस्संघ०-तिण्णिआणु०-पर० - उस्सा०-उजो०-दोविहा० - तसादिदसयुग०-तित्थ० सिया० तंतु० संखेजदिमागणं बौं । तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०णिमि० णि. व तंतु० संखेजदिभागणं । एवं चदणाणा०-दोवंदणी०-पंचंत० । ४०२. णिहाणिदाए उक्क० पदे०० पंचणा०-दोदंसणा०-मिच्छ०-अणंताणु०४पंचंत० णि० ब० णि० उक्क० । एवं ओरालियमिस्स भंगो। ४०३. णिद्दाए उक० पदे०६० पंचणा-पंचदंस०-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०उच्चा०-पंचंत० णि. बंणि० उक० । दोवेदणी०-चदणोक० सिया० उक्क० । मणुसग०-ओरालि०-ओरालि० अंगो०-मणसाण-थिरादितिण्णियुग० सिया० संखेंजदिभागूणं बं० । देवगदि०४-बजरि०-तित्थ. सिया० तं. तु० संखेजदिभागूणं बं० । [पंचिंदि०-तेजा.-क०-वण्ण०४-अगु०४-तस४-णिमि० णि० ० संखेंजदिभागणं बं०] समचदु०-पसत्थ० सुभग-सुस्सर-आदें. णि० ब० णि० तं तु० संखेंजदिभागूणं छह संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस आदि दस युगल और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करता है। तेजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुम्लयु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार चार ज्ञानावरण, दो वेदनीय और पाँच अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४०२. निद्रानिद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, दो दर्शनावरण, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इस प्रकार यहाँ औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंक समान भङ्ग है। ४३. निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानायरण, पाँच दर्शनावरण, बारह कपाय, पुरुषवेद, भय : जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । देवगतिचतुष्क, वज्रर्पभनाराचसंहनन और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका नियमसे बन्ध करता १. श्रा०प्रती 'उ.सा. श्रादाउमो०' इति पाठः । २. श्रा०प्रतौ 'चदुणोक० दोबेदी०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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