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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं २४७ संखेंजदिभागूणं वं० । थिरादितिण्णियुग० सिया० तंन्तु० संखेंजदिभागणं बं० । ३८८. मणुमाउ० उक्क० पदे०बं० धुविगाणं० णि० ० संखेंजदिभागणं बं० । सादा०छयुग-तित्थ० सिया० संखेंजदिभागणं बं० । ३८९. मणुसगदि० उक्क० पदे०५०. पंचणा०-छदंस०-बारसक० -पुरिस०-भयदु०-उच्चा०-पंचंत० णि पं० णि० उक्क० । सादासाद०-चदुणोक० सिया० उक्क० ! णामाणं सत्थाणभंगो० । एवं मणुसगदिभंगो सव्वाणं णामाणं ।। ३९०. तित्थ० उक्क० पदे०० हेट्ठा उवरि मणुसगदिभंगो । णामाणं अप्पप्पणी सत्थाणभंगो। __ ३९१. पंचिंदि०-तस-पज्जत्त-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि० ओधभंगो । ओरालियकायजोगि० मणुसगदिभंगो। ओरालियमि० उक्क० पदे०५० चदुणा०पंचंत० णि. वं० णि० उक्क० । थीणगिद्धि०३-दोवेद०-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०णबुंस०-आदाव-तित्थ०-णीचुच्चा० सिया० उक्क० । छदंस०-बारसक०-भय-दु० णि. भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार इस बीजपदके अनुसार नामकमके अतिरिक्त पूर्वोक्त सब प्रकृतियांकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिये । ३८८. गनुष्यायुका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करता है । साता आदि छह युगल अर्थात् साता-असाता, हास्य-शोक रति अरति, स्थिर आदि तीन युगल और तीर्थङ्करप्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ३८९. मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध रता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और चार नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानसन्निकर्पके समान है । इस प्रकार मनुष्यगतिके समान नामकर्मकी यहाँ बँधनेवाली सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ____३९०. तीर्थङ्करप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग अपने-अपने स्वस्थानसन्निकर्षके समान है। ३९१. पञ्चेन्द्रिय, पश्चेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी और काययोगी जीवों में ओघके समान भङ्ग है। औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्यगतिके अर्थात् मनुष्योंके समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, आतप, तीर्थङ्कर, नीचगोत्र और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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