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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सणियासं २४३ पंचंत० णि बं० णि० उत० । छदंस०-बारसक०-भय-दु० णि० बं० णि० अणंतभागूणं बं० । दोवेद०-मणुस०-मणुसाणु०-दोगोद० सिया० उक्क० । [चदुणोक० सिया० अणंतभागूणं० बं० 1] तिरिक्ख०-हुंड०-तिरिक्खाणु०-उजो०-थिरादितिण्णियुग०-दूभगअणार्दै० सिया० संखेंजदिभागूणं बं० । पंचिंदि०-ओरालि अंगो०-तस० णि बं० णि. तंतु० संखेंजदिभागूणं बं० । ओरालि०-तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०४-बादरपज्जत्त-पत्ते०-णिमि० णि० बं० णि० संखेंअदिभागूणं बं० । पंचसंठा०-छस्संघ०दोविहा०-सुभग-सुस्सर दुस्सर-आदें. सिया० तंन्तु० संखेंजदिमागूणं बं० । ३८१. दोआउ० णिरयगदिभंगो। ३८२. तिरिक्खग० उक्क० पदे०५० पंचणा०-थीणगिद्धि ०३-मिच्छ०-अणंताणु०४णqस० णीचा०-पंचंत० णि. बं० णि० उक्क० । छदंस०-बारसक०-भय-दु० णि. बं० णि. अणंतभागूणं ० । सादासाद० सिया० उक्क० । चदुणोक० सिया० अणंतभागूणं बं० । णामाणं सत्थाणभंगो। एवं तिरिक्खगदिभंगो एइंदि०-तिण्णिसरीरनियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उद्योत, स्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग और अनादेयका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीरआङ्गोपाङ्ग और त्रसका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मपशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यांतभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पाँच संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, सुभग, सुस्वर, दुःस्वर और आदेयका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध क ३८१. दो आयुओंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जिस प्रकार नरकगतिमें नारकियोंमें कह आये हैं उस प्रकार है। ३८२. तिर्यश्चगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । सातावेदनीय और असातावेदनीयका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है । यदि वन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इस प्रकार तिर्यश्चगतिके समान एकेन्द्रियजाति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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