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________________ २४४ महाबंधे पदेसंबंधाहिया रे हुंडसं ०१०- वण्ण०४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४ - आदावुञ्जो० थावर ' बादर - पजत्त- पत्ते ०-थिरादि तिष्णियुग० - दूभग- अणादें - णिमिणति । O ३८३. मणुस० उक्क० पदे०बं० पंचणा० - पंचंत २० णि० बं० णि० उक्क० । थी गिद्ध ०३ -सादासाद० मिच्छ० - अणंताणु ०४ - इत्थि० - णवंस० दोगो० सिया० उक्क० । छदंस०- बारसक०-भय-दु० णि० बं० णि० तंतु० अनंतभागूणं बं० । पंचणोक ० सिया० तं० तु० अनंतभागूणं बं० । णामाणं सत्थाण० भंगो | एवं मणुसगदिभंगो पंचिदि० - समचदु० - ओरालि • अंगो० - वजरि० - मणुसाणु ० पसत्थ० - तस - सुभग-सुस्सरआदें । णामाणं सत्थाण ० भंगो | ३८४. णग्गोध० उक्क० पदे०चं० पंचणा० - तिष्णिदंस०-मिच्छ० - अनंताणु०४पंचंत० णि० बं० णि० उक्क० । छदंस० बारसक०-भय-दु० णि० बं० णि० अनंतभागूणं बं० । दोवेदणी ० - इत्थि० - बुंस० दोगोद० सिया० उक्क० । पंचणोक० सिया० तीन शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप उद्योत स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर आदि तीन युगल, दुभंग, अनादेय और निर्माणकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिये । ३८३. मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । स्थानद्धित्रिक, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिध्यात्त्र, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पाँच नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इस प्रकार मनुष्यगतिके समान पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर और आदेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकषके समान है । ३८४. न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । दो वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पाँच नोकषायका कदाचित् १. आ० प्रती 'अगु० ४ थावर' इति पाठः । २. तातो प० बं० पंचता० (पंचणा) पंचत०' इति पाठः । ३. ता० प्रतौ 'श्रणंतभागू० । पंचणोक० सिया० तं० तु० प्रतिभागू० [ चिह्नान्तर्गतपाठः पुनरुक्तः प्रतीयते ] | णामाणं' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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