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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं तेजा १ ० क० - वण्ण ०४- अगु० -उप० णिमि० णि० ब० णि० तं तु ० संखेजदिभागणं बं० । अप्पसत्थ० - दुस्सर० सिया० संखैखदिभागणं बं० । दुभग-अणादें सिया० तं तु ० संखेजदिभागणं बं० । ३६२. अपचक्खाणकोध उक्क० पदे०चं० णिद्दाए भंगो। णवरि अट्ठक० णि० ० णि० अनंतभागणं बं० । एवं तिणिक० । ३६३. पच्चक्खाणकोध० उक्क० पदे०चं० पंचणा० उदसणा० सत्तक ०- > - पुरिस०भय-दु० - देवर्गादि ० ४ उच्चा०- पंचंत० णि० चं० णि० उक्क० । सेसं णिद्दाए भंगो । एवं सत्तणं कम्माणं । ० ३६४. इत्थि० उक० पदेοबं० पंचणा० -थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अगंताणु०४ - पंचंत० णि० बं० णि० उक्क० । छदंसणा० बारसक०-भय-दु० णि० ब० णि० अणु० अनंतभागूणं ब० । दोवेदणी० - देवर्गादि ० ४ दोगोद० सिया० उक्क० । चदुणोक० २३१ बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दुर्भग और अनादेयका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागद्दीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । ३६२. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग निद्राको मुख्यता से कहे गये सन्निकर्ष के समान है । इतनी विशेषता है कि यह आठ कषायोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १. आ० प्रतौ 'उप० णि०' इति पाठः । ३. ३६३. प्रत्याख्यानावरण क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सात नोकषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगतिचतुष्क, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। शेष भङ्ग निद्राकी मुख्यता से कहे गये सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि सात कर्मोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३६४. स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता 1 वेदनीय, देवगतिचतुष्क और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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