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________________ २३४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे सिया० अणंतभागूणं बं० । दोगदि-ओरालि०-हुंड०-ओरालि अंगो०-असंपत्त०. दोआणु०-अप्पसत्थ-थिरादितिण्णियुग-भग-दुस्सर-अणार्दै. सिया० संखेंजदिभागूणं बं० । पंचिंदि०-तेजा-क०-वण्ण०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णि० बं० संखेंजदिभागूणं बं० । पंचसंठा०-पंचसंघ०-पसस्थ०-सुभग-सुस्सर-आर्दै सिया० तंतु० संखेंजदिभागूणं बं० । उज्जो० सिया० संखेंजदिभागूणं बं० । _३६५. णवूस० उक्क० पदे०बं० हेट्ठा उवरि इत्थिभंगो । णामाणं णिरयगदि०४आदाव०' सिया० उक्क० । दोगदि-पंचजादि-ओरालि०-पंचसंठा०-ओरालि अंगो०छस्संघ-दोआणु०-पर-उस्सा-उजो०-अप्पसत्थः-तस०४-[युग.-] थिरादितिण्णियुग०दूभग-दुस्सर-अणादें सिया० तंतु० संखेंजदिभागणं बं० [तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु० इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार नोकषायोंका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो गति, औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान,औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग,असंप्राप्तामृपाटिकासंहनन, दो आनुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलधुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनत्कष्ट प्रदेशबन्ध करता है। उद्योतका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ३६५. नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जानना चाहिए । यह नामकर्मकी प्रकृतियोंमेंसे नरकगतिचतुष्क और आतपका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिकशरीरआङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क युगल, स्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी । करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। समचतुरनसंस्थान, प्रशस्त १. ता०प्रतौ 'णामाणं । णिरयगदि० १ अदाव.' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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