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________________ २३२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ३६०. णिहाए उक्क० पदे०बं० पंचणा-पंचदंसणा-पुरिस०-भय-दु०-देवग०वेउव्वि०-समचदु०-वेउन्वि०अंगो०-देवाणु०-पसत्थ०-सुभग सुस्सर-आर्दै०-उच्चा०-पंचंत० णि. बं. णि. उक० । दोवेदणी०-अपचक्खाण०४-चदुणोक. सिया० उक्क० । अट्ठक० णि• बं० णि० तंतु० अणंतभागूणं बं० । पंचिंदि०-तेजा०-क०-वण्ण०४अगु०४-तस०४-णिमि० णि. बं० अणु० संखेंजदिभागूणं बं० । थिरादितिण्णियु० सिया० संखेजदिभागूणं बं० । एवं पंचदंस०-सत्तणोक० । ३६१. सादा० उक्क० पदे०६० पंचणा०-पंचंत० णि० बं० उक्क० । थीणगिद्धि. ३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०-णस०-देवगदि०४-आदाव-दोगोद० सिया० उक० । छदंस०-अट्ठक०-भय-दु० णि बं० णि तन्तु० [अणंतभागूणं बं०] । अपचक्खाण०४. पंचणोक० सिया० तंतु० अर्णतभागूणं बं० । दोगदि-पंचजादि-ओरालि०-छस्संठा० ओरालि अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-पर०-उस्सा०-[ उजओ०-] पसत्थ०-तस०४-[युग०-] थिरादितिण्णियुग०-सुभग-सुस्सर-आर्दै सिया० ० तु. संखेंजदिमागूणं बं० । ___ ३६०. निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, पाँच दर्शनावरण, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और चार नोकषायोंका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। आठ कषायोंका नियमसे बन्ध करता है, किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है, तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार पाँच दर्शनावरण और सात नोकषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३६१. सातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, देवगतिचतुष्क, आतप और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और पाँच नोकषायोंका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, वसचतुष्क युगल, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर और आदेयका कदाचित्पन्ध करता है। यदि www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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