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________________ २३१ सत्तरपगदिपदेसबंधे संण्णियासं दोगदि-पंचजादि-ओरालि०-छस्संठा०-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-पर०-उस्सा०उजओ०-दोविहा०-तसादिदसयुग० सिया० तंतु० संखेंजदिमागूणं बं०। तेजा०-कावण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि० णि० बं० णि तं० तु. संखेजदिभागूणं बं० । एवं चदुणा०-असादा०-पंचंत। ___३५९. णिहाणिद्दाए उक्क० पदे०बं० पंचणा०-दोदंसणा०-मिच्छ.'-अणंताणु०४पंचंत. णि. बं० णि० उक्क० । छदंस०-बारसक०-भय-दु० णि. बं० अणंतभागूणं बं० । दोवेदणी०-इति-णस०-वेउब्वियछ०-आदाव-दोगोद० सिया० उक्क० । पंचणोक० सिया० अणंतभागूणं बं० । दोगदि-पंचजादि-ओरालि०-छस्संठा-ओरालि.. अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-पर-उस्सा०-उज्जो०-दोविहा'०-तसादिदसयुग० सिया० तं. तु० संखेंअदिभागूणं०५० । तेजा.-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि० णि बं० तंतु० संखेजदिभागूणं बं० । एवं दो दंस०-मिच्छ०-अणंताणु०४ । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीर आलोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, उद्योत दो विहायोगति और त्रसादि दस युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार चार ज्ञानावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३५९. निद्रानिद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, दो दर्शनावरण, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, वैक्रियिक छह, आतप और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पाँच नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छास, दो विहायोगति, और त्रसादि दस युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तेजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार दो दर्शनावरण, मिथ्यात्व और भनन्तानुबन्धीचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १. सा०मा० प्रत्योः 'दोवेदणी० मिच्छ.' इति पाठः । २. प्रा०प्रतौ 'उस्सा. दोविहा० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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