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________________ २३० महाबंधे पदेसबंधाहियारे संखेजदिभागूणं बं० । एवं थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुब०४-इत्थि-णबुंस०-णीचा । ३५७. णिहाए उक्क० पदे०ब पंचणा०-पंचदंस०-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०मणुस-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु० - ओरालि अंगो०- वअरि०-वण्ण०४मणुसाणु अगु०४-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णि. ० णि. उक्क० । दोवेदणी०-चदुणोक०-थिरादितिण्णियुग० सिया० उक्क० । एवं पंच० [दसणा०-] पारसक०'-सत्तणोक०-मणुसगदिदुगं० । सेसाणं चउत्थिभंगो। णवरि मिच्छत्तपाओग्गाणं तिरिक्खगदिदुमं०२ वा उक्का० । _३५८. तिरिक्खेसु आभिणि० उक्क० पदे०७० चदणा०-पंचंत. णि० ० णि. उक्क० । थीणगिद्धि०३-दोवेदणी-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०-णस०-वेउव्वियछ०आदाव दोगोद० सिया० उक्क० । अपञ्चक्खाण०४-पंचणोक० सिया० तंतु० अणंतभागूणं बं० । [छदंस०-] अहक०-भय-दु० णि बं० णि तं तु० अणंतभागूणं बं० । प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और नीचगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३५७. निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, पाँच दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, चार नोकषाय, और स्थिर आदि तीन यगलका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इस प्रकार पाँच दर्शनावरण, बारह कषाय, सात नोकषाय और मनुष्यगतिद्विककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । शेष प्रकृतियों का भङ्ग चौथी पृथिवीके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वप्रायोग्य प्रकृतियोंमें तिर्यश्चगतिद्विक को उत्कृष्ट कहना चाहिए। ३५८. तिर्यश्चोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो बेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, वैक्रियिकषटक, आतप और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और पाँच नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय और जुगुप्सा का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन १. ता०प्रतौ एवं पंचंत [व]. बारस.' इति पाठः ।२. ता०प्रतौ 'तिरिक्खगदिधुवं.' इति पाठः । ३.ता०प्रतौ 'चदुणो० पंचंत.' आ०प्रतौ 'चदुणोक० पंचंतः' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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