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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सणियासं २२० उक० । छदसणा-बारसक०-भय-दु० णि० बं० णि० तंतु० अणंतभागणं बं० । पंचणोक० सिया० तन्तु० अणंतभागणं बं० । णामाणं सत्थाणभंगो। ३५२. पंचिंदि०-ओरालि. - तेजा०-क० -समचदु०-ओरालि०अंगो०- वारि०वण्ण०४-मणुसाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादितिण्णियुग-सुभग - सुस्सर-आर्दै०णिमि० हेडा उवरि मणुसगदिभंगो। णामाणं सत्थाणभंगो। पंचसंठा०-पंचसंघ० अप्पसत्थ-भग-दुस्सर-अणादें. हेहा उवरि तिरिक्खगदिभंगो । णामाणं सत्थाणमंगो। ३५३. तित्थ उक्क० पदे०बं० पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०उचा०-पंचंत० णि बं० णि. उक० । दोवेद०-चदुणोक० सिया० उक्क० । णामाणं सत्थाणमंगो। ३५४. उचा० उक० पदे०बं० पंचणा-पंचंत० णि० बं० णि. उक० । थीणगिद्धि ०३ [ दोवदणी० ] मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०-णवंस०-पंचसंठा-पंचसंघ०अप्पसत्यद्भग-दुस्सर-अणार्दै०-तित्थ० सिया० उक० । छदंस०-बारसक०-भय-दु. छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पाँच नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नाम कर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। ३५२. पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, बर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यगतिकी मुख्यतासे इन प्रकृतियोंका कहे गये सन्निकर्षके समान है। तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान मन्निकर्षके समान है। पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष तिर्यश्चगतिकी मुख्यतारकहे गये इन प्रकृतियोंके सन्निकर्षके समान है । तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। ३५३. तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। ३५४. उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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