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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सष्णियासं २२१ अणंतभागणं । णामाणं सत्थाणभंगो। एवं देवगदिभंगो वेउव्वि'.-समचद .. वेउवि०अंगो०-देवाणु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदें। ३४१. बीइंदि'०-तीइंदि०-चदुरिं०-पंचिंदियजादीणं हेढा उवरि तिरिक्खगदिभंगो। णामाणं सत्थाणभंगो। एवं ओरालि अंगो०-असंपत्त०-पर०-उस्सा०-आदाउजो०-तस-पज्जत्त-थिर-सुभाणं । णवरि एदेसिं णामाणं अप्पप्पणो सत्थाणं कादव्वं । ३४२. आहार० उक्क० पदेब पंचणा०-चददंसणा०-सादा०-उच्चा०-पंचंत० णि बं० संखेजदिमागणं ब। णिद्दा-पयला० सिया० उक्क० । कोषसंज० णि० दुभागणं बं। माणसंज सादिरेयं दिवड्भागणं बं । मायासंज०-लोभसंज.. पुरिस० णि० ब० णि० संखेंजगुण । हस्स-रदि-भय-द.. णि० ब० णि० उक्क० । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं आहार०अंगोवंग० । ३४३. णग्गोध० उक्क० पदे०० पंचणा०-चददंसणा-पंचंत० णि० ५० स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इस प्रकार देवगतिके समान वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आंगोपांग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३४१. द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रिय जाति और पञ्चेन्द्रियजातिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग निर्यश्चगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, त्रस, पर्याप्त, स्थिर और शुभ प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना । इतनी विशेषता है कि इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग अपने-अपने स्वस्थान सन्निकर्षके समान कहना चाहिए। ३४२. आहारकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा और प्रचलाका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मानसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मायासंज्वलन, लोभसंज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहोन भनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मको प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार आहारकशरीर आलोपालको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३४३. न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यात. १. ता०प्रतौ 'देवगदिभंगो। वेउ.' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'आदे. बीड दि.' इति पाठः । ३. ता०मा०प्रत्योः 'थिर-सुभगाणं णवर' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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