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________________ महाबं वे पदे सबंधाहियारे ९० वण्ण०४ सत्थाणभंगो । एवं तिरिक्खगदिभंगो एइंदि० - ओरालि० - तेजा० [० क०० - हुंड तिरिक्खाणु० - अगु० - उप० - थावर ० - बादर - सुहुम-अपज ० - पत्ते ० - साधार०- अथिरादिपंचणिमिणं । २२० ३३९. मणुसग० उक्क० पदे०चं० हेट्ठा उवरि तिरिक्खगदिभंगो। णामाणं सत्थाणभंगो | एवं मणुसाणु ० । ३४०. देवग० उक्क० पदे०चं० पंचणा० चदुदंस०[० उच्चा०- पंचंत० णि० ब ० णि० संखैखदिभागणं बं० । थीणगिद्धि ०३ - असादा०-मिच्छ० - अनंताणु ०४ - इत्थि० सिया॰ उक्क० | णिद्दा-पयला अडक० चदुणोक० सिया० तं तु ० अनंतभागणं बं० । सादा० सिया० संखेजदिभागणं बं० । कोधसंज० णि० बं० दुभागणं चं० | माणसंज० सादिरेयं दिवडभागणं बं० । मायासंज० - लोभसंज० णि० ब० संखेजगुणहीणं ब. ० ० । पुरिस० जस० सिया० संखेजगुणहीणं । भय-दु० णि० बं० तं० तु० समान है । चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इसी प्रकार तिर्यवगतिके समान एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३३९. मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और आगेकी प्रकृतियोंका मङ्ग तिर्यगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान है । तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भंग स्वस्थानसन्निकर्षके समान है । ३४०. देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । स्त्यानगृद्धि तीन, असातावेदनीय, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । निद्रा, प्रचला, आठ कषाय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । सातावेदनीयका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका निपसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मानमंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणा होन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पुरुषवेद और यशः कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातगुणा हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भंग For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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