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________________ महाबंधे पदेसर्वपाहियारे वण्ण०४-अगु०४-तस०४-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णि० बं० णि. अणु० संखेंअदिमागणं बं० । [ साद०-मणुस०-ओरालि०-ओरालि-अंगो०-मणुसाणु०-थिराथिर-सुभासुभ-अजस० सिया०संखेजदिभागूणं बं०] असाद० अपचक्खाण०४ सिया० उक० । पञ्चक्खाण०४ सिया० तं-तु० अणंतभागणं बं'। चदुसंज-पुरिस०[ जस०] णिहाए भंगो। णिद्दा-पयला-[ सोग०-] भय-दु० णि. बं. णि. उक० । देवग०-वेउन्वि०वेउव्वि०अंगो०-वारि०-देवाणु०-तित्थ. सिया० ० तु. संखेजदिभागणं । समचदु०-पसत्य-सुभग-सुस्सर-आदें णि. 4. णि० तं० तु. संखेंअदिभागणं बं । एवं सोग। ३३५. भय० उक्क० पदे०बर. पंचणा०-चदुदंसणा-उच्चा०-पंचंत० णि. व० संखेजदिभागणं । णिद्दा-पयला-असाद०-अपच्चक्खाण०४-चदुणोक० सिया० उक्क० । सादा०-मणुस०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-] ओरालि०अंगो०-वण्ण०४पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। सातावेदनीय, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयश-कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे संख्यात भागहीन अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। असातावेदनीय और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार संज्वलन, पुरुषवेद और यश कीर्तिका भङ्ग निद्राके समान है। निद्रा, प्रचला, शोक भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करता है। देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहामोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार शोकको मुख्यतासे समिकर्ष जानना चाहिए। ३३५. भयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । सातावेदनीय, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, १. प्रा०प्रतौ 'अपञ्चक्खाण०४ सिया. तं तु. सिया० त सु० अणंतभागूणं बं० ।' इति पाठः । ताप्रती एवं सोगं भय । ३५००' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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