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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं २१५ दिवडभागूणं बं० । मायासंज० लोभसंज० णि० ब० संजगुणहीणं बंधदि । ३३३. हस्स० उक्क० पदे०चं० पंचणा० चदुदंस० - [ उच्चा० ] पंचंत ' ० णि० बं० णि० अणु ० संखेञ्जदिभागूणं बं० । णिद्दा- पयला- असादा- अपच्चक्खाण०-४ सिया० उक्क० । साद० - मणुस ० - पंचिंदि० - ओरालि ० तेजा० क ०-ओरालि० अंगो' ० वण्ण०४मणुसाणु०-अगु०४-तस०४-थिरादिदोयुगल अजस ० - णिमि० सिया० संखेज दिभागूणं बं० । आहार०२ सिया० तं तु ० संखैजदिभागूणं बं० । [ चदुपच्चक्खाण० ] चदुसंज०पुरिस० णिद्दाए भंगो । रदि-भय-दुगुं० णि० ब ०णि० उक्क० | देवगदि समचदु० - वेडव्वि०उव्व० अंगो० - वजरि०- देवाणु ० - पसत्थ० - सुभग-सुस्सर-आदें० - तित्थ० सिया० तं० तु० संखेदिभागूणं बं० । जस० सिया० विद्वाणपदिदं बंधदि संखेजहीणं संखजगुणहीणं वा बंधदि । एवं रदि० । ३३४. अरदि ३० उक्क० पदे०चं० पंचणा० चदुदंस० पंचिंदि० - तेजा० क० बन्ध करता है जो इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणद्दीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । ३३३. हास्यका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । सातावेदनीय, मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, मनुष्यगन्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि दो युगल, अयशःकीर्ति और निर्माणका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । आहारकद्विकका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्क, चार संज्वलन और पुरुषवेदका भङ्ग निद्राके समान है । रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो द्विस्थानपतित बन्ध करता है, कदाचित् संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है और कदाचित् संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिये । ३३४. अरतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, १. ता०प्रतौ 'पंचणा० पंचंत०' इति पाठः । २ श्र०प्रतौ 'पंचिदि० ओरालि अंगो०' इति पाठः । ३. ता०जा० प्रत्योः 'रदि भयदुगु' • श्ररदि०' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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