SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महापंधे पदेसबंधाहियारे भागणं । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणव०४ णि बणि० उक्क० । णिहापयला-अट्ठक०-भय-द • णि बणि० अणु० अणंतभागणं । सादा०-उच्चा० सिया० संखज्जदिमागणं बं० । असादा०-णिरय०-वेउव्वि०-उव्वि०अंगो०-णिरयाणु०आदावणीचा'. सिया उक्क० । चदुसंज० इत्थिभंगो। चदणोक० सिया० अणंतभागणं । दोगदि-पंचजादि-ओरालिं०-पंचसंठा-ओरालि अंगो० छस्संघ० दोआणु०. पर० उस्सा०-उञ्जो०-अप्पसत्थ०-तसादि०४युगल-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-दस्सरअणादें-अजस० सिया० तंतु० संखेज्जदिभागूणं बं । [ तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०उप-णिमि० णि ० ० तंन्तु० संखज्जदिमागणं ] समचद ०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सरआदें सिया० संखज्जदिभागणं व । जस० सिया०' संखज्जदिगुणहीणं । ३३२. पुरिस० उक्क० पदे०बं० पंचणा०-चदुदंस०-सादा०-जस०-उच्चा०पंचंत० णि बं० संखेंजदिमागणं बं० । कोधसंज० दुभागणं बं० । माणसंज० सादिरेयं अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, आठ कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। सातावेदनीय और उच्चगोत्रका कदाचित वध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। असातावेदनीय, नरकगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, नरकगत्यानुपर्वी, आतप और नीचगोत्रका कदाचित् वन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार संज्वलनका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। चार नोकवायोंका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, सादि चार युगल, स्थिर, अस्थिर, शुभ, भशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्गचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करना है तो नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ३३२. पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मान संज्वलनका नियमसे १. आप्रतौ 'मादाव थावर णीचा' इति पाठः। २. आ.प्रतौ 'संखेजदिभागणं बं. सिया.' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy