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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सब्णियासं मणुसाणु ०-अगु०४-तस०४-थिराधिर - सुभासुभ-अजस ० - णिमि० सिया० संखेजदिभागणं ब ं० । जस हस्सभंगो' । पच्चक्खाण ०४ सिया० तं तु ० अणंतभागणं' ब० । चदुसं० पुरिस० [ जस०] णिद्दाए भंगो । दुगुं० णि० ० णि० उक्क० | देवग०वेउन्त्रि०० आहार ० दुग-समचदु० वेउन्त्रिअंगो० - वज्जरि ० – देवाणु ० -पसत्थ० - सुभग- सुस्सरआदें - तित्थ• सिया० तं तु ० संखेजदिभागणं ब० । एवं दुगुं० । ७. ३३६. णिरयाउ ३० उक्क० पदे०चं० पंचणा० णवदंस० - असाद००-मिच्छ०बारसक०-गवुंस०-अरदि-सोग-भय-दुगुं० - णिरयग०-पंचिंदि० - वे उव्वि०-तेजा०-क०- -हुंड०वेडव्त्रि ० अंगो० - वण्ण ०४ - णिरयाणु० - अगु०४- अप्पसत्थ० -तस०४ - अथिरादि४० - णिमि०णीचा० - पंचंत० णि० ब० णि० अणु० संखजदिभागणं बं० । चदुसंज० णि० ब० शि० संखेजगुणहीणं ब० । तिरिक्खाउ ० उक्क० पदे०ब० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०बारसक०5०-भय-दु ० - तिरिक्ख ० - तिष्णिसरीर वण्ण०४ - तिरिक्खाणु० -अगु० - उप०-- णिमि०[णीचा० ] पंचत० णि० बं० णि० अणु० संखेजदिभागूणं बं० । दोवेद० छण्णोक ० २१७ स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयशः कीर्ति और निर्माणका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । यशस्कीर्तिका भङ्ग हास्यकी मुख्यता से कहे गये सन्निकर्षके समान है । प्रत्याख्यानावरण चारका कदाचित् बन्ध करता है । किन्तु उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेश बन्ध करता है तो नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । चार संज्वलन, पुरुषवेद और यशःकीर्तिका भङ्ग निद्राको मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्ष के समान है । जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है | देवी, वैक्रियिकशरीर, आहारकद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वश्रर्षभनाराचसंहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और तीर्थङ्करप्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता हैं। इसी प्रकार जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३३६. नरकायुका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, बारह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तिर्यवायुका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगति, तीन शरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । दो वेदनीय, छह नोकषाय, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक १. श्रा० मतौ 'हस्सर दिभंगो' इति पाठः । २. आ०प्रतौ 'सिया० श्रणंतभागूर्ण' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ ' एवं दुगु - (गु) । णिरयाउ ०' इति पाठ । For Private & Personal Use Only २८ Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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