SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सणियासं असाद०-चदुणोक० सिया० उक्क० । [पञ्चक्खाणा०४ णि० बं० णि० अणंतभागूणं० ।] कोधसंज० दुभागूणं बं० । माणसंज. सादिरेयदिवभागूणं बं० । मायासंज०-लोभसंज-पुरिस० णि० बं० णि० संखेंजगुणहीणं बं० । देवगदि-वे उवि०-वेउव्वि०अंगो०देवाणु० सिया० तन्तु० संखेंज्जदिभागूणं बं० । समचदु०-पसत्य-सुभग-सुस्सर-आदें. णि बं० तंतु० संखेंजदिभागणं बं० । वज्जरि० सिया० तंतु० संखेज्जदिभागणं बं० । जस० सिया० संखेज्जगु० । तित्थ० सिया० तंत० संखेंजदिभागणं बं० । एवं तिण्णिकमा० । ३२६. पञ्चक्खाणकोध० उक्क० पदे०बं० पंचणा०-चदुदंसणा-पंचिंदि०तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०४-तस०४-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णि बं० णि० संखेंजदिभागृणं बं० । णिद्दा-पयला-तिण्णिक०-भय-दु० णि० बं० णि० उक्क० । सादा० है तो नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। असातावेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे अनन्त भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मानसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मायासंज्वलन, लोभसंज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। देवगति, वक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरआङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। वर्षभनाराच संहननका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। यशःकीतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३२६. प्रत्याख्यानावरण क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निमोण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । निद्रा, प्रचला, तीन कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। सातावेदनीय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशःकोतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy