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________________ महाधे पदेसबंध हियारे थिराथिर-सुभासुभ-अजस० सिया० संखेजदिभागूणं वं० । असादा० चदुणोक० - तित्थ ० सिया० उक्क० | देवगदि वे उब्वि० समचदु० वे उब्वि० अंगो० देवाणु ०-पसत्थ० -सुभगसुस्सर-आ० णि० बं० तं० तु० संखेजदिभागूणं ब० । चदुसंज० - पुरिस ० अपच्चक्खाणभंगो | एवं तिष्णिक० । ०-जस० २१२ ३२७० कोधसंज० उक्क० पदे०ब० पंचणा० चदुदंसणा०-सादा० ' -जस० उच्चा० पंचत० णि० संखेजदिभागूणं बं० | माणसंज० णि० ० संखेजदिभागूणं चं० । मायासंज० दुआगू० | लोभसंज॰` संखॆञ्जगु॰ । ૨ ३२८. माणसंज० उक० पदे०ब० पंचणा० चदुदंसणा० सादा० - मायासंज०जस०- उच्चा०- पंचंत० णि० ब० संखैजदिभागूणं ब० । लोभसंज० म० ब ० संखेजगुणहीणं बं । एवं मायासंज० । णवरि लोभसंज० दुभागूणं बं । ० इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । असातावेदनीय, चार नोकषाय और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियम से उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । देवगति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता हैं । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यानभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता । चार संज्वलन, पुरुषवेद और यशःकीर्तिका भङ्ग अप्रत्याख्यानावरणके समान है । अर्थात् अप्रत्याख्यानाचरणके समय इनके साथ जिस प्रकारका सन्निकर्ष कह आये हैं, उसी प्रकारका यहाँ पर भी जानना चाहिये। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३२७. क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मानसंज्वलनका नियम से बन्ध करता है जो इसका नियमसे संख्यात भागद्दीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मायासंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । लोभसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । ३२८. मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावारण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, मायासंज्वलन, यश : कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । लोभसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार मायासंज्वलनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह लोभसंज्वलनका दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । १ ता० आ० प्रत्यो: 'चदुसंज० सादा०' इति पाठ: । २ ता० प्रतौ 'मायसं० दूभग० ( दुभागू० ) लोभसंज०' इति पाठ: । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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