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________________ २०७ उत्तरपगदिपदेस बंधे सण्णियासं ३१९. सासणे सत्तणं क० देवगदिभंगो । तिरिक्खगदिदंडओ मणुसगदिदंडओ ओघो । देवगदि० जह० पदे०चं० पंचिंदियादि याव णिमिण त्तिणि० बं० णि० अज' ० असंखेंज्जगुणन्भहियं ० । वेउव्वि ० - वेउन्त्रि ० अंगो० -देवाणु० णि० बं० णि० जह० । एवं० वेड व्वि० वेउ व्वि० अंगो०- देवाणु ० । ३२०. असण्णी० तिरिक्खोघं । णवरि वेउव्वियछ० जोणिणिमंगो । अणाहार ० कम्मइगभंगो | एवं जहण्णओ सत्थाणसणियासी समत्तो । ३२१. परत्थाणसण्णियासं दुविधं - जह० उक० च । उक्क० पगं । दुवि०ओघे० आदे० | ओघे० आभिणि० उक्क० पदे० बं० चदुणा० चदुदंस०-सादा० जस०उच्चा० - पंचंत० णि० चं० णि० उक्क० । एवमेदाओ ऍकमेकस्स उक्कस्सिगाओ । ३२२. णिद्दाणिद्दाए उक्क० पदे०चं० पंचणा० चदुदंसणा० पंचंत० णि० बं० णि० अणु संखेज भागूणं बं० । पयलापयला थीण गिद्धि-मिच्छ० - अणंताणु०४ णि० बं० णि० उक्क० । णिद्दा- पयला- अट्ठक० -भय-दु० णि० बं० णि० अणु० अनंतभ० । सादा० उच्चा० सिया० संखेजदिभागूणं । असादा० - इत्थि० O स० ३२९. सासादन सम्यक्त्वमें सात कर्मों का भङ्ग देवोंके समान है । दिर्यचगतिदण्डक और मनुष्यगतिदण्डकका भङ्ग ओघ के समान है । देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पचेन्द्रियजाति से लेकर निर्माण तककी प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजधन्य प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाम और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३२०. असंज्ञियोंमें सामान्य तिर्यों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें वैककि छहका भङ्ग पचेन्द्रिय तिर्यच योनिनी जीवोंके समान है । अनाहारक जीवोंमें कार्मणका योगी जीवोंके समान भङ्ग है । इस प्रकार जघन्य स्वस्थान सन्निकर्ष समाप्त हुआ । ३२१. परस्थानसन्निकर्ष दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघसे आभिनिबोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इस प्रकार इनमेंसे किसी एकका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होते समय अन्य सबका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । ३२२. निद्रानिद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । निद्रा, प्रचला, आठ कषाय भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । सातावेदनीय और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध १. ताः प्रतौ 'णि० । अज०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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