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महायंधे पदेसबंधाहियारे तेजा-क०-वेउवि अंगो'. णि० ० तं तु० संखेंजभागब्भहियं० । आहार०२ सिया'० जह० । एवमेदाओ देवगदि० सह ऍक्कमेकस्स जहण्णाओ। अथिर० जह० पदे०ब. देवगदिधुविगाणं णि० संखेजभा० । असुभ -अजस० सिया० जह० । सुभ-जस० सिया० संखेंजभागब्भहियं० । एवं असुभ-अजस० । एवं संजद-सामाइ०छेदो०-परिहार० । एवं संजदासंज० । णवरि देवगदि० जह० पदे०५० वेउव्विय०[ वेउव्वियअंगो०-देवाणु०-] णि. बं० णि० जहण्णा । सुहुमसं० अवगदभंगो ।
३१८, तेउ० सत्तण्णं क० देवोघं । तिरिक्खगदिदंडओ' मणुसगदिदंडओ पंचिंदियदंडओ सोधम्मभंगो। देवगदिदंडओ आहार०२दंडओ ओधिभंगो। एवं पम्माए । णवरि एइंदिय-आदाव-थावरं वज । सुक्काए सत्तण्णं क० देवभंगो। मणुसगदिदंडओ णग्गोध दंडओ आणदभंगो । देवगदिदंडओ तेउभंगो। करता है। वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। आहारकद्विकका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इस प्रकार देवगति सहित इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे परस्पर नियासे जघन्य सन्निकर्ष करता है। अस्थिरप्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव देवगति आदि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। अशुभ
और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। शुभ और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अशुभ और अयशःकोर्तिकी मख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार संयतासंयत जीवोंके भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संयतासंयतोंमें देवगतिका जघन्य प्रदेशवन्ध करनेवाला जीव वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरआङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है।
३१८. पीतलेश्यामें सात कर्माका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। तिर्यञ्चगतिदण्डक, मनुष्यगतिदण्डक और पञ्चेन्द्रियजातिदण्डकका भङ्ग सौधर्मकल्पके देवोंके समान है। देवगतिदण्डक और आहारकद्विकदण्डकका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसमें एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । शुक्ललेश्यामें सात कर्मा का भङ्ग देवोंके समान है। मनुष्यगतिदण्डक और न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानदण्डकका भङ्ग आनतकल्पके समान है। देवगतिदण्डकका भङ्ग पीतलेश्याके समान है।
१. ताःप्रती 'वेउ० ते. वेउ अंगो०' इति पाठः। २. आप्रतो 'आहार सिया०' इति पाठः । ३. प्रा.प्रतौ '-धुविगाणं..."असुभ' इति पाठः। ४. आ० प्रतौ 'अवगदभंगो।..."सत्तण्णं' इति पाठः । ५. श्रा०प्रतौ 'तिरिक्खद'डओ' इति पाठः । ६. आ०प्रतौ दवगदिदडो २ दंडो' इति पाठः।
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