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________________ २०५ उत्तरपगदिपदेसबंधे सगियासं वेउव्वियदुर्ग एवं चेव । णवरि दोगदि० सिया० जह० । दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया० संखेंजभागभहियं० । देवगदि० जह० पदे०व० वेउब्धि-वेउवि अंगो०देवाणु० णि० जह० । सेसाओ पंचिंदियादि यात्र' जसगि०-णिमिण ति णि. ५० णि. संखेजभागब्भहियं० । ३१६. आभिणि सुद०-ओधि० सत्तण्णं० कम्माणं ओघं । मणुसगदि० जह. पदे०७० मणुसगदिसंजुत्ताओ तीसिगाओ णि० बं० णि० जहण्णा । एवं तीसिगाओ ऍक्कमेंकस्स जहण्णा । देवग० जह० पदे०२० वेउबि०-वेउव्वि०अंगो०-देवाणु० णि. बं० णि० जह० । सेसाणं णि. बं० अज० संखेंजभागब्भहियं० । एवं वेउव्वियदुगं देवाणु । आहारदुगं० ओघं। एवं ओघिदं०-सम्मा०-खड्ग०-वेदग०-उवसम०सम्मामि० । ३१७. मणपज. सत्तण्णं कम्माणं आहारकायजोगिभंगो । देवगदि० जह० पदे०० पंचिंदियादि याव णिमिण त्ति तित्थ • गि० ब० णि० जह० । वेउव्वि०निरामसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसीप्रकार वैनियिकद्विककी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि यह दो गतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका वह नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध काता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातवा भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गापान और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशवन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजातिसे लेकर यशःकीर्ति और निर्माणतक शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातवों भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। ३१६. आभिनिवाधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात काँका भन ओघके समान है। मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगतिसंयुक्त तीस प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार तीस प्रकृतियोंकी मुख्यता से परस्पर जघन्य सन्निकर्ष जानना चाहिए। देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव वैक्रियिकशरीर, वक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसीप्रकार वैक्रियिकद्विक और देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। इसीप्रकार अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में जानना चाहिए। ३१७. मनःपर्ययज्ञानी जीवों में सात कर्मोंका भङ्ग आहारककाययोगी जीवोंके समान है। देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पवेन्द्रियजातिसे लेकर निर्माणतककी प्रकृतियोंका और तीर्थङ्कर प्रकृतिका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध १. ता०प्रती'चेव गवरि':ति पाठः । २. ताप्रती 'पंचिंदिय याव' इति पाठः। ३. श्रा०प्रती 'देवाणु० । चक्खु. ओघं' इति पाठः। ४. ता०प्रतौ 'णिमिण ति । तित्थः' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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