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________________ २०४ महानंधे पदेमबंधाहियारे भहियं० । सेसं पंचिंदियादि याव णिमिण ति णि.4 णि. अज० असंखेजगुणब्भहियं० । थिरादितिण्णियुग० सिया० असंखेंजगुणब्महियं । एवं देवगदि०४। ३१४. इथिवेदे० पंचिंदियतिरिक्खजोणिणिभंगो। णवरि० तित्थ० जह० ब० आहार०२ सिया० जह० । सेसाणं देवगदि याव णिमिण त्ति मि०4 असंखेगुणभ० । पुरिसेसु ओघभंगो। णqसगेसु ओघभंगो। वेउव्वियछ० जोणिणिभंगो । अवगदवेदे ओघं। कोधादि०४-असंज०-चक्खुदं०-अचक्खुदं०-तिण्णिले०-भवसि०सण्णि आहारग ति ओघं । णवरि किण-णील० तित्थ० जह० पदेय देवगदिदुवं०' णि. असंखेंजगु० । थिरादितिण्णियुग० सिया० असंखेंजगुण । काउ० तित्थ० जह० पदे०ब मूलोघं । ३१५. मदि०-सुद०-अब्भव०-मिच्छा०-असण्णि० पंचिंदियतिरिक्खजोणिणिभंगो । विभंगो वचिजोगिभंगो। णवरि णिरयगदि० जह० पदे०० वेउवियदुगं णिरयाणु० णि. जह० । पंचिंदियादिसेसाणं णि. बं०. संखेंजभागब्भहियं० । एवं णिरयाणु । अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजातिसे लेकर निर्माण तककी शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजवन्य प्रदेशबन्ध करता है। स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसीप्रकार देवगतिचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३१४. स्त्रीवेदमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्करप्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव आहारकद्विकका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। देवगतिसे लेकर निर्माण तककी शेष प्रकृतियों का नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेदी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। नपुंसकवेदी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। मात्र इनमें वैक्रियिकषटकका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तियश्च योनिनी जीवोंके समान है । अपगतवेदी जीवों में ओघके समान भङ्ग है। क्रोधादि चार कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नील लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव देवगतिद्विकका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। कापोतलेश्यामें तीर्थङ्करप्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग मूलोघके समान है। ३१५. मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंही जीवामें पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंके समान भङ्ग है। विभङ्गज्ञानी जीवोंमें वचनयोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नरकगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव वैक्रियिकद्विक और नरकगत्यानुपूर्वी का नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । पञ्चेन्द्रियजाति आदि शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका १. ताप्रती 'देवगदिधुवं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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