SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरपदपदेसबंधे सण्णियासं २०३ 0 ३१२. वेव्वियका० सत्तण्णं क० णामाणं सोधम्मभंगो । एवं वेडव्वियमि० । आहार - आहार मि० कोधसंज० जह० पदे०चं० तिण्णिसंज० - पुरिस० - हस्स-रदि-भयदुगुं० णि० बं० णि० जह० । एवमेदाओ ऍकमेकस्स जहण्णा । अरदि० जह० पदे ०बं० चदुसंज० - पुरिस०-भय-दु० णि० ब० णि० अज० संखेंखदिभागन्भहियं ० । सोग० णि० ब० जह० । एवं सोग० | देवगदि० जह० पदे०ब० पंचिंदियादि याव णिमिण त्तिणि० ब० णि० जहण्णा । एवं देवगदिभंगो पसत्थाणं तित्थयरसहिदाणं । अथिर० जह० पदे ०ब० देवग दिपसत्थाणं णि० बं० णि० अज० संखेज भागग्भहियं ० । असुभ अजस० सिया० जह० । सुभ-जस० - तित्थ० सिया० संखेजभागन्भहियं ० । एवं असुभ अजस० । सेसाणं कम्माणं ओघं । ३१३. कम्मइगे सव्वाणं० ओघं । णवरि देवगदि० जह० पदे०ब० वेउव्वि०वेडव्वि ० अंगो० -देवाणु ० णि० ब ० णि० जह० । तित्थ० णि० ब ० संखेजदिभाग ३१२. वैक्रियिककाययोगी जीवों में सात कर्मोंकी और नामकर्मकी प्रकृतियों का भङ्ग सौधर्मकल्पके समान है । इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में जानना चाहिए। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवांमें क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर जघन्य सन्निकर्ष जानना चाहिए । अरतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । शोकका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसीप्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रियजातिसे लेकर निर्माण तककी प्रकृतियों का नियम से बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार देवगतिके समान तीर्थङ्करप्रकृति सहित प्रशस्त प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अस्थिर - प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव देवगति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। अशुभ और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। शुभ, यशःकीर्ति और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसीप्रकार अशुभ और अयशःकीतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष कर्मोंका भङ्ग ओके समान है । ३१३. कार्मणकाययोगी जीवों में सब कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और देवत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । तीर्थङ्करप्रकृतिका निययसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक १. ता०प्रवौ 'क० । णामाणं' इति पाठः । २. ता०प्रसौ 'वेडवियमि० आहार० आहारमि०' इति पाठः । ३. ता०प्रत्तौ 'जहण्णा । देवगदिभंगो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy