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________________ १९५ उत्तरपगदिपदेसबंधे संण्णियासं ३००. सुहुम० जह० पदे००' तिरिक्ख०-एइंदि०-ओय-तेजा०-क०-हुंड०वण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-[पजत्त०-] थावर-दूभग-अणार्दै०-अजस-णिमि० णि. बं० णि. अजहण्णा संखेंजभागब्महियं बं०। पत्ते-थिराथिर-सुभासुभ० सिया संखेंजदिभागन्भहियं बं० । साधा० सिया० जह० । एवं साधारः । ३०१. अपज० जह० पदे०६० दोगदि-चदुजा०-दोआणु० सिया० संखेजदिभागब्भहियं बं० । ओरालिय याव णिमिणं ति णि. बं०२ णि० संखेंजदिभागभहियं ब। ३०२. तित्थ० जह० पदे०० मणुस-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०समचदु०-ओरालि०अंगो०-वजरि०-वण्ण०४-मणुसाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-सुभगसुस्सर-आदें-णिमि० णि० ब० असंखेंजगुणब्भहियं । थिरादितिण्णियुग० सिया० असंखेंजगुणब्भहियं ब। विशेषार्थ-आहारफशरीर और आहारकशरीरआङ्गोपाङ्गके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी एक ही जीव है; इसलिए इन दोनोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष एक समान कहा है। ३००. सूक्ष्मप्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, स्थावर, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे इनका संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। साधारणका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार साधारणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए। विशेषार्थ—सूक्ष्म और साधारण इन दोनों प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी एक है और इन दोनोंका जघन्य प्रदेशबन्ध होते समय एक समान प्रकृतियोंका बन्ध होता है, इसलिए इनकी मुख्यतासे एक समान सन्निकर्ष कहा है। ३०१. अपर्याप्त प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव दो गति, चार जाति और दो आनुपूर्वी का कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे संख्यातवा भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। औदारिक शरीरसे लेकर निर्माण तककी प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। ३०२. तीर्थङ्करप्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, काणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। १. ता०प्रतौ 'ज० [१०] बं' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'णिमिणं तिणि बं०' इति पाठः । ३. ता०प्रा०प्रत्योः 'असंखेजदिगुणब्भदिय" इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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