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महाधे पदेसबंधाहियारे
छस्संठा० - उस्संघ० - दो० विहा० - थिरादिछयुग ० सिया० जहण्णा । एवं पंचिंदि० भंगो पंचसंठा० - पंच संघ० -पसत्थ० - सुभग- सुस्सर- आज ति । ओरा०-तेजा० क०६० - हुंड०ओरा०अंगो०-असंघ०-वण्ण०४- अगु०४- उज्जो० - अप्पसत्थ ० -तस०४ - थिरादितिष्णियुग०दूर्भाग- दुस्सर- अणादे० - णिमिणं एवमेदे० ' तिरिक्खगदिभंगो ।
२९९. आहार० जह० पदे०चं० देवग दि-पंचिंदि० - वे उव्वि ० -तेजा० क०समचदु० - वेउच्चि ० अंगो० - वण्ण४- देवाणु० - अगु० ४-पसत्थ-तस० ४- थिरादिछ० - णिमि०तित्थ० णि० ० णि० अज • असंखेजगुणन्भहियं ब० । आहारंगो० णि० नं० णि० जहण्णा । एवं आहार० • अंगो०
० ।
और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे इनका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका विकल्पसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसप्रकार पश्चेन्द्रियजातिके समान पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्रसृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग, दुःश्वर, अनादेय और निर्माण इस प्रकार इनकी मुख्यता से सन्निकर्ष तिर्यञ्चगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — यद्यपि पञ्चेन्द्रियजातिके जघन्य प्रदेशबन्धका जो स्वामी है, वही तिर्यगतिके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है और यहाँ पर इन दोनोंकी मुख्यता से कहे गये सन्निकर्ष के समान अन्य जिन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्षके जाननेकी सूचना की है, उनके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी भी वही जीव है, फिर भी किस प्रकृतिका जघन्य बन्ध होते समय अन्य किन-किन प्रकृतियों का किस प्रकारका बन्ध होता है, इस बातका विचार कर यहाँ अन्य प्रकृतियोंकी मुख्यता से सन्निकर्षके जाननेकी सूचना की है। तात्पर्य यह है कि पचेन्द्रियजातिकी मुख्यता से जिस प्रकार अन्य प्रकृतियोंके साथ सन्निकर्ष होता है, उस प्रकार पाँच संस्थान आदि चौदह प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष बन जाता है, इसलिए उन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे प्राप्त होनेवाले सन्निकर्षको पञ्चेन्द्रियजातिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जाननेकी सूचना की है और तिर्यगतिकी मुख्यतासे जिस प्रकार अन्य प्रकृतियोंके साथ सन्निकर्ष होता है, उस प्रकार औदारिकशरीर आदि तीस प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष बन जाता है, इसलिए उन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे प्राप्त होनेवाले सन्निकर्षको तिर्यगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्ष के समान जानने की सूचना की है।
२९९. आहारकशरीरका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव देवगति, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और तीर्थङ्करका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजधन्य प्रदेशबन्ध करता है । आहारकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे इसका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार आहारकशरीर आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१. ता० प्रतौ 'णिमिणं । एवमेदे' इति पाठः ।
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