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उत्तरपगदिपदे बंधे सगियासं
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२९६. एइंदि०' जह० तिरिक्खग०-ओरा०-तेजा०-०-हुंड०० वण्ण४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४- बादर-पञ्जत्त-पत्ते ०० दूभग० -अणादै० - णिमि० णि० बं०णि० अज० संखेजदिभागन्भहियं ब० । आदाव० सिया० जह० । थावर० णि० ब ० णि० जहण्णा । उज्जो० सिया० संखेंज दिभागव्भहियं ब० । थिरादितिष्णयुग० सिया संखेजदिभाग-महियं ब० । एवं आदाव थावर० ।
२९७. बीइंदि० जह० पदे ०ब० तिरिक्ख० ओरा० -तेजा० क०- हुंड० ओरा०अंगो०-असंप०-वण्ण०४- तिरिक्खाणु० - अगु०४- उज्जो० - अप्पसत्थ० -तस० ४- दूर्भाग- दुस्सरअणादें ० - णिमि० णि० ब० णि० जहण्णा । थिरादितिष्णियुग० सिया० जह० । एवं तीइंदि० चदुरिंदि० ।
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२९८. पंचिंदि० जह० पदे०चं० तिरिक्ख० तिष्णिसरीर ओरा० अंगो० - चण्ण०४तिरिक्खाणु० - अगु०४- उज्जो०-तस०४ - णिमिणं णि० ब ० णि० जहण्णा ।
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२९६. एकेन्द्रिय जातिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्जगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुभंग, अनादेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशका बन्ध करता है । आतपका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । स्थावरका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । उद्योत का कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसीप्रकार आतप और स्थावरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — एकेन्द्रियजातिके समान ही आतप और स्थावरके जघन्य प्रदेशबन्ध का स्वामी है, इसलिए यहाँ पर आतप और स्थावरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष एकेन्द्रियजातिकी मुख्यता से कहे गये सन्निकर्षके समान जानने की सूचना की है।
२९७. द्वीन्द्रियजातिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव तिर्यचगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुंडसंस्थान, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता
। स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसीप्रकार त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
विशेषार्थ — द्वीन्द्रियजातिके स्थान में एकबार त्रीन्द्रियजातिको रखकर और दूसरीबार चतुरिन्द्रियजातिको रखकर उसी प्रकार सन्निकर्ष कहना चाहिए, जिसप्रकार द्वीन्द्रियजातिकी मुख्यता से कहा है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
२९८. पचेन्द्रियजातिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव तिर्यगति, तीन शरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्जगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, उद्योत, त्रसचतुष्क
१. ता० प्रतौ 'देवाणु० एइंदि' इति पाठः । २, ता० भा०प्रत्योः 'तस० णिमियां' इति पाठः । २
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