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________________ महाबँधे पदेसबंधाहियारे २९४. मणुसग० जह० पदे ० नं० पंचिंदि० ओरा०-तेजा०क० - ओरा० अंगो० 'वरण ०४- अगु०४-तस०४ - णिमि० णि० बं० णि० अज० संखेज दिभागन्भहियं ब ं० । छस्संठा०-छस्संघ ० दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया० संखेजदिभागन्भहियं ब० ० । मणुसाणु० णि० बं० णि० जहण्णा । एवं मणुसाणु० । १९२ २९५. देवगदि० जह० पदे०ब० पंचिंदि० तेजा० क० - समचदु० - वण्ण०४अगु०४- पसत्थ० -तस ०४-सुभग-सुस्सर-आदें - ० णिमि० णि० ब० णि० अज० असंखेजगुणन्भहियं व ं० । वेउन्त्रि ० - वेउन्वि ० अंगो०- देवाणु० णि बं० णि० जहण्णा । थिराथिर - सुभासुभ-जस० - अजस० सिया० असंखेअगुणन्भहियं ब० । तित्थ० णि० संखेज्जभागव्भहियं ब ं० । एवं वेउब्वि० - वेउन्त्रि ० अंगो०- देवाणु० । C तिर्यगतिके समान जाननेकी सूचना की है, अन्य प्रकृतियोंकी मुख्यता से उस प्रकारके सन्निकर्ष के जानने की सूचना नहीं की है सो इसका जो भी कारण है उसका स्पष्टीकरण आगे के सन्निकर्षसे स्वयमेव हो जायगा । २९४. मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पश्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे इनके असंख्यातवें भाग अधिक अजघन्य प्रदेशों का बन्ध करता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे संख्यातवें भाग अधिक अजघन्य प्रदेशों का बन्ध करता है। मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे इसका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । विशेषार्थ — मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी एक ही जीव है, इसलिए यहाँ पर मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्षको मनुष्यगति के समान जानने की सूचना की है। २९५. देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे असंख्यातगुणे अधिक अजघन्य प्रदेशोंका बन्ध करता है । वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे इनका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशः कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे इनका असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसीप्रकार वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी की मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । विशेषार्थ – देवगतिद्विक और वैक्रियिक शरीरद्विकके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी एक ही जीव है, इसलिए वैक्रियिकद्विक और देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष देवगतिकी मुख्यता से कहे गये सन्निकर्षके समान जानने की सूचना है । १. आ० प्रती 'वेजाकभंगो०' इति पाठः । २. भा० प्रतौ 'अजस० असंखेजदिभागम्भदि मं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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