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________________ उत्तरपमदिपदेसवंधे सब्जियासं १९१ २९२. निरयग० जह० पदे ० नं० पंचिंदि० बेडन्नि० – तेजा० - क० - हुंड०उवि ० अंगो० - वण्ण ०४- अगु०४ - अप्पसत्य० -तस०४- अथिरादि३० - णिमि० णि० बं० णि० अज ० ' असंखैअगुणग्भहियं बंधदि । णिरयाणु० णि० बं० णि० जहण्णा । एवं णिरयाणु ० । २९३. तिरिक्ख० जह० पदे०बं० चदुजादि छस्संठा० छस्संघ ० - दो विहा०थिरादिछयुग० सिया बं० जह० । ओरा०-तेजा० क० - ओरा० अंगो० - वण्ण०४- तिरिक्खाणु० - अगु०४- उजो ० -तस०४ - णिमि णि० जहण्णा । एवं तिरिक्खाणु० । विशेषार्थ - मिध्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्ध का स्वामी भी एक ही जीव है, इसलिए इनका जघन्य सन्निकर्ष एक समान कहा है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का तो सर्वत्र नियमसे सन्निकर्ष कहना चाहिए और सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंका यथासम्भव विकल्पसे सन्निकर्ष कहना चाहिए। उसमें भी तीन वेद, रति-अरति और हास्य - शोक इनमेंसे एक-एक प्रकृतिको मुख्य करके सन्निकर्ष कहते समय अपनी-अपनी सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंको छोड़कर ही सन्निकर्ष कहना चाहिए। उदाहरणार्थ तीन वेदोंमें से जब किसी एक वेदकी मुख्यता से सन्निकर्ष कहा जाय तब अन्य दो वेदोंको छोड़कर ही सन्निकर्ष कहना चाहिए। इसी प्रकार रति-अरति तथा हास्य- शोकके विषयमें भी जानना चाहिए, क्योंकि तीन वेदों में से किसी एक वेदका, रति-अरतिमेंसे किसी एकका और हास्य- शोक में से किसी एकका बन्ध होनेपर उनकी प्रतिपक्षभूत अन्य प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, ऐसा नियम है । २९२. नरकगतिके जघन्य प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे असंख्यातगुणे अधिक अजघन्य प्रदेशोंका बन्ध करता है। नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य प्रदेशोंका बन्ध करता है । इसीप्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए । विशेषार्थ - नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी एक ही जीव है, इसलिए इनकी मुख्यता से सन्निकर्ष एक समान कहा है। नरकगतिके साथ बँधने वाली अन्य प्रकृतियोंका जघन्य सन्निकर्ष यथासम्भव उनके जघन्य स्वामित्वको देखकर जान लेना चाहिए। २९३. तिर्यञ्जगतिके जघन्य प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियम से उनके जघन्य प्रदेशोंका बन्ध करता है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, पोत, सनतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । जो इनके जघन्य प्रदेशोंका नियमसे बन्ध करता है । इसीप्रकार तिर्यश्वगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। विशेषार्थ — तिर्यञ्चगतिके जघन्य प्रदेशबन्ध के साथ बँधनेवाली यहाँ जितनी प्रकृतियाँ गिनाई हैं, उन सबके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी एक समान है; इसलिए यहाँ सन्निकर्ष तो सबका जघन्य ही कहा है। फिर भी यहाँपर केवल तिर्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अजस०' इति पाठः । २. आ० प्रती 'अगु० ४ उच्चा० तस० ४ णिमि० ' १. आान्प्रतौ 'यि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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