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________________ महाबन्ध प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाले जीवको सब योगस्थान प्राप्त होते हैं । सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाले जीवके जो उत्कृष्ट होता है उसमेंसे आठ प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाले जीवका उत्कृष्ट योगस्थानका कुछ भाग शेष बचता है, इसलिए आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवालेसे सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवालेके विशेष प्राप्त होता है। तथा इसी प्रकार सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवालेसे छह प्रकारके कर्मोंका बन्ध करने वालेके विशेष प्राप्त होता है। यही कारण है कि यहाँ पर योगस्थानांसे ज्ञानावरणके प्रदेशबन्धस्थान संख्यातवें भागप्रमाण अधिक कहे हैं। यहाँ ज्ञानावरण कर्मके आश्रयसे जो व्याख्यान किया है उसी प्रकार अन्य कर्मों के आश्रयसे जानना चाहिए । मात्र आयुकर्मके योगस्थान समान होते हैं। यह मूल प्रकृतियों की अपेक्षा विचार हुआ। उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षा इसीप्रकार प्रत्येक प्रकृतिका आलम्बन लेकर योगस्थानों और प्रदेशबन्ध स्थानोंके प्रमाणका अलग-अलग विचार किया गया है। तथा अल्पबहुत्वमें इन योगस्थानों और प्रदेशबन्ध स्थानोंके मूल व उत्तरप्रकृतिकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका विचार किया गया है। जीवसमुदाहार इस अनुयोगद्वारके भी दो भेद हैं-प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व । प्रमाणानुगममें पहले चौदह जीव समासोंके आश्रयसे जघन्य और उत्कृष्ट योगस्थानों के अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करके बादमें उन्हीं चौदह जीव समासांके आश्रयसे जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध स्थानोंके अल्पबहुत्वका कथन किया गया है। अल्पबहत्वके जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट ये तीन भेद करके ओघ और आदेशसे सब मूल व उत्तरप्रकृतियोंके प्रदेशोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा इन प्रकरणों में की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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