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________________ विषय-परिचय १६ प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका विचार किया गया है। तथा जघन्य समुत्कीर्तना, जघन्य स्वामित्व और जघन्य अल्पबहुत्वमें ओघ और आदेशसे मूल और उत्तर प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका विचार किया गया है। यहाँ एक ताइपत्रके गलं जानेसे मूलप्रकृतियोंको अपेक्षा स्वामित्वके अन्तका बहुभाग और अल्पबहुत्व तथा वृद्धि अनुयोगद्वारके अल्पबहुत्वके अन्तके अंशको छोड़कर शेष सब प्रकरण नष्ट हो गये है। इसीप्रकार उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्वका निर्देश करते हुए आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी इन तीन मार्गणाओंकी प्ररूपणाके मध्यमें ताम्रपत्र मुद्रित प्रतिमें यह सूचना दी गई है-क्रमागतताडपत्रस्यात्रानुपाब्धिः। अक्रमयुक्तमन्यं समुपलभ्यते । ] अर्थात् क्रमागत ताड़पत्रकी यहाँपर अनुपलब्धि है। अक्रमयुक्त अन्य ताड़पत्र उपलब्ध हो रहा है। वैसे प्रकरणकी सङ्गति बैठ जाती है, इसलिए यह कह सकना कठिन है कि क्रमाङ्कके अन्तरको सूचित करनेके लिए यहाँ सूचना दी गई है या यह सूचना देनेका अन्य कोई कारण है। यहाँ समुत्कीर्तनामें ओघ और आदेशसे मूल और उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा किसके उत्कृष्ट वृद्धि आदि और जघन्य वृद्धि आदि सम्भव हैं इस बातका निर्देश किया गया है। तथा स्वामित्वमें उनका स्वामित्व और अल्पबहुत्वमें अल्पबहुत्व बतलाया गया है । वृद्धि पहले पदनिक्षेपमें उत्कृष्ट वृद्धि आदि और जघन्य वृद्धि आदि पदोंके आश्रयसे विचार कर आये हैं। यहाँ इस अनुयोग द्वारमें उत्कृष्ट और जघन्य भेद न करके अपने अवान्तर भेदोंकी अपेक्षा वे वृद्धि और हानि जितने प्रकारकी हैं उनके आश्रयसे तथा अवस्थित और अवक्तव्यपदके आश्रयसे ओघ और मूल व उत्तर प्रकृतियोंका साङ्गोपाङ्ग विचार किया गया है । इसके अवान्तर अनुयोगद्वार तेरह हैंसमुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । वृद्धिपद उपलक्षण है। इससे वृद्धि, हानि, अवस्थित और अवक्तव्य इन सबका ग्रहण होता है। इन चारोंके अवान्तर भेद बारह हैं । यथा अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि, असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य । यहाँ इन पदोंकी अपेक्षा समुत्कीर्तना आदि तेरह अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर और आदेशसे मूल व उत्तर प्रकृतियोंका विचार किया गया है। समुत्कीर्तनामें मूल व उत्तर प्रकृतियोंके कहाँ कितने पद सम्भव हैं यह बतलाया गया है। स्वामिल.मूल व उत्तर प्रकृतियोंके किन पदोंका कहाँ कौन स्वामी है यह बतलाया गया है। इसी प्रकार आगे भी जिस प्रकरणका जो नाम है उसके अनुसार विचार किया गया है। यह तो हम पहले ही सूचित कर आये हैं कि मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा वृद्धि-अनुयोगद्वारका कथन करनेवाला प्रकरण ताड़पत्रके गल जानेसे प्रायः सबका सब नष्ट हो गया है, उत्तर प्रकृतियोंका विवेचन करनेवाला ही यह प्रकरण उपलब्ध होता है। अध्यवसानसमुदाहार अध्यवसानसमुदाहारके दो भेद हैं-प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व । प्रमाणानुगममें योगस्थानी और प्रदेशबन्धस्थानोंके प्रमाणका निर्देश करते हुए बतलाया है कि जितने योगस्थान हैं उनसे ज्ञानावरण कर्मके प्रदेशबन्धस्थान संख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं। कारणका निर्देश करते हुए बतलाया है कि आठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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