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________________ १८ महाबन्ध निर्देश ग्रन्थके प्रारम्भमें भागहार प्ररूपणा के समय बतला ही आये हैं, इसलिए उसे ध्यानमें रखकर और स्वामित्वको ध्यान में रखकर इसकी योजना करनी चाहिए। कर्मोंके घाति भघाति तथा घाति कमौके देशघाति और सर्वघाति होनेसे किसी कर्मको कम और किसी कर्मको अधिक प्रदेश मिलते हैं, इसे भी इस प्रकरण में ध्यान रखना चाहिए। भुजगारबन्ध इस प्रकरणमें भुजगार पद उपलक्षण है। इससे भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य इन चारोंका बोध होता है। अनन्तर पिछले समय में अल्प प्रदेशोंका बन्ध करके अगले समयमें अधिक प्रदेशका बन्ध करना यह भुजगारबन्ध है । अनन्तर पिछले समय में अधिक प्रदेशोंका बन्ध करके वर्तमान समय में कम प्रदेशोंका वध करना यह अल्पतर बन्ध है। अनन्तर पिछले समयमें जिसने प्रदेशोंका बन्ध किया है, अगले समयमें उतने ही प्रदेशोंका बन्ध करना यह अवस्थित बन्ध है और अवन्धके बाद बन्ध करना यह अवक्तव्यबन्ध है । यहाँ इसका तेरह अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे कथन किया गया है। वे तेरह अनुयोगद्वार ये हैं - समुत्कीर्तना स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व | यहाँ आठ मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविषय प्रकरणका प्रारम्भके और अन्तके कुछ अंशको छोड़कर शेष अंश नए हो गया है। कारण कि यहाँका एक ताड़पत्र गल गया है। इसी प्रकार ताड़पत्रके तीन पत्र गल जानेसे उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा अन्तर प्ररूपणाका अन्तका कुछ भाग, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविषय और भागाभाग ये तीन प्रकरण भी नष्ट हो गये हैं। समुत्कीर्तनामें ओघ और आदेशसे मूल और उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा पूर्वोक्त भुजगार आदि चारों पदोंमेंसे किसके कौन सम्भव हैं, इस बातका निर्देश किया गया है । स्वामित्वमें ओघ और आदेशसे उनका स्वामी बतलाया है। कालप्ररूपणामें उनके कालका और अन्तर प्ररूपणा में अन्तरका विचार किया गया है। इसी प्रकार आगे भी जिस प्रकरणका जो नाम है, उसके अनुसार ओघ और आदेशसे विचार किया गया है। यहाँ मूल प्रकृतियों की अपेक्षा ओघसे अवस्थित पदके कालका निर्देश करते हुए दो प्रकारके उपदेशों का स्पष्टरूपसे उल्लेख किया है—एक 'पवाइस' उपदेश और दूसरा अन्य उपदेश । 'पवाइज्जत' उपदेशके अनु ओघ आयु बिना सात मूल कर्मोंके अवस्थित पदका उत्कृष्ट काल ग्यारह समय और अन्य उपदेशके अनुसार पन्द्रह समय कहा गया है। ओघसे उत्तर प्रकृतियोंके कालका निर्देश करते भी इन दो उपदेशों का उल्लेख किया है। वहाँ चार आयुओंके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके अवस्थित पदको उत्कृष्ट काल 'पवाइज्जंत'उपदेशके अनुसार ग्यारह समय और अन्य उपदेशके अनुसार पन्द्रह समय बतलाया है । पदनिक्षेप भुजगार अनुयोगद्वार में भुजगार, अल्पतर, अधस्थित और अवक्तव्यपदके आश्रयसे मूल और उत्तर प्रकृतियोंके समुत्कीर्तन आदिका विचार किया जाता है, यह पहले बतला आये हैं। किन्तु वे भुजगार आदि पद उत्कृष्ट भी होते हैं और जघन्य भी होते हैं, इस बातका विचारकर वहाँ इस अनुयोगद्वारमें भुजगारके उत्कृष्ट वृद्धि और जघन्य वृद्धि ये दो भेद करके, अल्पतरके उत्कृष्ट हानि और जघन्य हानि ये दो भेद करके तथा अवस्थितपदके उत्कृष्ट अवस्थान और जघन्य अवस्थान वे दो भेद करके विचार किया गया है। अवक्तव्यपदके ये उत्कृष्ट और जघन्य भेद सम्भव नहीं हैं, इसलिए यहाँ इसकी अपेक्षा न तो वे भेद किये ये हैं और न इसकी अपेक्षा विचार ही किया गया है। इस प्रकार उक्त बीजपदके अनुसार पदनिक्षेपके समुत्कीर्तना स्वामित्व और अल्पबहुत्व ये तीन अनुयोगद्वार कहकर प्रत्येकके उत्कृष्ट और जघन्य से दो-दो भेद कर दिये गये हैं । उत्कृष्ट समुकीर्तना स्वामित्व और अहपबहुत्वमें ओघ और आदेशले मूल और उत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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