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उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं
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२७९. कोधसंज० उक्क० पदे०बं० माणसंज० णि० चं० णि० संखेजदिभगूर्ण बं० । दोणं संज० णि० वं० संखेजगुणहीणं बं० । माणसंज० उक्क० पदे०बं० दोसंज० णि० बं० संखैज्जदिभागूणं बं० । मायासंज० उक्क० पदे०चं० लोभसंज० णि० बं० णि० उक्क० । एवं लोभसंजल ० । सेसं ओघं । लोभे ओघं ।
२८०. मदि० - [ सुद० ] सत्तण्णं क० अपजत्तभंगो। णामपगदीणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो | एवं विभंगे अब्भव ० - मिच्छा० - असण्णिः ।
२८१. आभिणि-सुद-अधि० सत्तण्णं कम्माणं ओघं । मणुसगदि० उक्क० पदे०1 बं० पंचिंदि० तेजा० क० - समचदु० - चण्ण ०४ - अगु०४ - पसत्थ० -तस० ४-सुभग-सुस्सरआदें - णिमि णि० बं० णि० अणु० संर्खेजदिभागूणं बं० । ओरा० ओरा० अंगो०वञ्जरि०- मणुसाणु० णि० चं० णि० उक्क० । थिरादितिष्णियुग० सिया संखेजदिभागूणं बं० । वरि जस० सिया संखेजगुणहीणं बं० । एवं ओरा० - ओरा० अंगो०वजरि० - मणुसाणु० ।
२८२. देवग दि० उक्क०
पदे०चं० पंचिंदि० - समचदु० -वण्ण ०४ देवाणु ०
२७९. क्रोधसंज्वलनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव मानसंज्वलनका नियम से बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । दो संज्वलनोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । मानसंज्वलनके उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करनेवाला जीव दो संज्वलनोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । मायासंज्वलन के उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव लोभसंज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियम से उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । इसीप्रकार लोभसंज्वलनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । शेष भंग ओघके समान है। लोभकषायवाले जीवों में ओघके समान भङ्ग है ।
२८०. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग अपर्याप्त जीवोंके समान है । नामप्रकृतियोंका भङ्ग पचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । इसी प्रकार विभङ्गज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों में जानना चाहिए ।
२८१. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघ के समान है | मनुष्यगतिके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव पचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वज्चर्यभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्धक होता है | यदि बन्धक होता है तो संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिका कदाचित बन्धक होकर भी संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशों का बन्धक होता है। इसी प्रकार औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वार्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२८२. देवगति उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव पचेन्द्रियजाति, समचतुरस्र
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