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________________ १८४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे अगु०४-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि० णि. बं० णि० उक्क० । वेउन्वि०-तेजा०-क०-वेउव्वि० अंगो० णि० ० ० तु. संखेंजदिभागूणं बं० । आहार०२-थिरादिदोयुग०-अजस० सिया० उक्क० । जस० सिया' संखेंजगुणहीणं । देवगदिभंगो पंचिंदि०-समचदु०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच०-णिमि० । २८३. वेउवि० उक्क० पदे०बं. देवगदि याव णिमि० णि० बं० णि. उक्क० । थिरादिदोयुग०-अजस०२ सिया० संखेंजगुणहीणं बं० । एवं तेजा०-क०वेउव्वि०अंगो। २८४. आहार० उक्क० पदे०६० देवगदि०-पंचिंदि०-समचदु०-[आहारअंगो०] वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच०-णिमि० णि० उक्क० । जस० णि० ब० संखेंजगुणहीणं० । वउवि०-तेजा०-क०-वेउव्वि० अंगो० णि बं० संखेंजदिसंस्थान, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। आहारकद्विक, स्थिर आदि दो युगल और अयश-कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष देवगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान है। २८३. वैक्रियिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव देवगतिसे लेकर पूर्वमें कही गई निर्माण तककी प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। स्थिर आदि दो युगल और अयश कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। इसीप्रकार तैजसशरीर, कार्मणशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २८४. आहारकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, आहारकआङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। यशःकीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। इसीप्रकार आहारकशरीरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष १. ता.आ०प्रत्योः 'उक० । जस० सिया० उक्क० । जस० सिया०' इति पाठः । २. प्रा०प्रती 'थिरादिदोश्रायु. अजस०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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