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महाबंधे पदेसंबंधाहियारे
माणसंज० णियमा सादिरेयदिवडभागूणं बंधदि । मायासंज० - लोभसंज० णियमा iti बंदि ।
२७७. हस्त० उक्क० पदे बंधंतो अपच्चक्खाण०४ सिया
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२७८.
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णियमा उक्क० । अट्ठक०-भय-दुगुं० णि० बं० अनंतभागूणं बं० । कोधसंज० णि० बं० दुर्भागूणं बं० । माणसंज० णि० बं० २ सादिरेयदिवडभागूणं बं० । माया संज० - लोभसंज० णि० बं० णि० संखेञ्जगुणहीणं बं० । इत्थि० णवंस० सिया० उक्क० । पुरिस० सिया० संखेजगु० । चदुणोक० सिया० अनंतभागूणं बंधदि । एवं अणंताणु०४-इत्थि०-णवुंस०- । अपचक्खाण ०४-सत्तणोक० चदुसंज० मिच्छत्तभंगो । सेसाणं माणभंगो |
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नियम से बन्ध करता है जो नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है | मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशों का बन्धक होता है ।
विशेषार्थ — पुरुषवेदके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव मोहनीयकी पुरुषवेद के साथ चार संज्वलन प्रकृतियों का ही बन्ध करता है, इसलिए इसके इस दृष्टिसे सम्भव सन्निकर्ष कहा है ।
२७७. हास्यके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्धक होता है
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२७८. ...नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । आठ कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनन्तयें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशका बन्धक होता है । क्रोध संज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । मानसंज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशों का बन्धक होता है । मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशों का बन्धक होता है। चार नोकषायों का कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनन्तवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशों का बन्धक होता है । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी मुख्यता से सन्निकर्ष कहना चाहिए । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, सात नोकपाय और चार संज्वलनका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मानकषायके समान है ।
१. अत्र १८८ क्रमाङ्ककं ताडपत्रं विनष्टम् । २. प्राप्रती 'माणसंज० बं०' इति पाठः । ३. ता० प्रतौ ' एवं अनंताणु० ४ । इत्थि पु ं०' इति पाठः ।
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