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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे अंतरं १६७ O 1 एइंदि० - आदावथावरं वज । बिदियदंडए' पंचिंदिय-तसपविड । सादासाद० दंडओ य तेउ० भंगो । पुरिसदंडओ तेउ० भंगो । तिष्णिआउ० - देवर्गादि ४ - आहारदुग ० तेउभंगो । वरि अप्पप्पणो द्विदी भाणिदव्वा । ओरा०-ओरा० अंगो० जह० अज० णत्थि अंतरं । २६०. सुक्काए पंचणा० - दोबेदणी० ० उच्चा० पंचंत० जह० जह० अट्ठारस साग० सादि०, उक्क० तेत्तीस साग० समऊ० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि ० ३ दंडओ गेवजभंगो । छदंसणा ० - चदुसंज० सत्तणोक० पंचिंदि० तेजा ० क० समचदु० - वञ्जरि० - वण्ण० ४ - अगु०४ - पसत्थ० -तस०४ - थिरौदितिष्णियुग०-सुभगसुस्सर-आदें० - णिमि:- तित्थ० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अट्ठक० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० एग० । मणुसाउ० देवभंगो । देवाउ • मणजोगिभंगो । मणुस ०४ जह० अज० णत्थि अंतरं । देवगदि ०४ जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० तो ०, उक्क० तैंतीसं साग० सादि० । आहार०२ जह० अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । इतनी विशेषता है कि दूसरे दण्डकमेंसे एकेन्द्रियजाति आतप और स्थावरको कम कर देना चाहिए। तथा इसी दूसरे दण्डकमें पचेन्द्रियजाति और त्रसको प्रविष्ट करना चाहिए। सातावेदनीय और असातावेदनीय दण्डकका भङ्ग पीतलेश्या के समान है । पुरुषवेददण्डकका भङ्ग पीतलेश्या के समान है। तीन आयु, देवगतिचतुष्क और आहारकद्विकका भङ्ग पीतलेश्या के समान है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। औदारिकशरीर और औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्गके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है । विशेषार्थ पद्मलेश्या में एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरका बन्ध नहीं होता, इसलिए उन्हें कम करके उनके स्थान में पचेन्द्रियजाति और त्रसको सम्मिलित किया है । शेष विचार सुगम है । मात्र पद्मलेश्या में अन्तरका कथन करते समय पीतलेश्याकी स्थितिके स्थान में पद्मलेश्या की स्थिति कहनी चाहिए । २६०. शुक्ललेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, दो वेदनीय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर साधिक अठारह सागर है और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम तेतीस सागर है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धित्रिकदण्डकका भङ्ग प्रवेयकके समान है। छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, सात नोकषाय, पचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर आदेय, निर्माण और तीर्थङ्करके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आठ कषायों के जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान है । देवायुका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । मनुष्यगतिचतुष्कके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तर काल नहीं है । देवगति चतुष्कके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । १. ता० प्रती 'तदियदंडए' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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