________________
१६६
महाबंचे पदेसंबंधाहियारे
जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० पलि० सादि०, उक्क० बेसाग० सादि० । ओरा० ' जह० अज० णत्थि अंतरं ।
२५९. पम्माए पढमदंडओ विदियदंडओ तेउ० भंगो । णवरि विदियदंड ए ० अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । औदारिकशरीरके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है ।
विशेषार्थ — पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य प्रदेशबन्ध मनुष्य और देवके भवग्रहणके प्रथम समयमें सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्यप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागरप्रमाण कहा है। और इनके जघन्य प्रदेशबन्धका यह एक समय काल अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल होनेसे वह जघन्य और उत्कृष्ट एक समय कहा है । स्त्यानगृद्धि आदिका जघन्य प्रदेशबन्ध प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ देवके होता है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्ध के अन्तरकालका निषेध किया है । तथा इनके इस जघन्य प्रदेशबन्ध के आगे-पीछे अजघन्य प्रदेशबन्ध होता है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और पीतलेश्या के प्रारम्भमें व अन्तमें मिध्यादृष्टि होकर इनका बन्ध किया और मध्य में सम्यग्दृष्टि रहकर अबन्धक रहा तो इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक दो सागर प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। छह दर्शनावरण आदिके जघन्य प्रदेशबन्ध के अन्तरकाल का निषेध उसी प्रकार जान लेना चाहिए, जिस प्रकार स्त्यानगृद्धि तीन आदिके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा यतः इनके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है, अतः इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है । सातावेदनीय आदिके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी पाँच ज्ञानावरण के ही समान कहा है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल पाँच ज्ञानावरणके समान कहा है । तथा ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्ध का जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । पुरुषवेद आदिके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ देव ही है, अतः इनके जघन्य प्रदेशबन्ध के अन्तरकालका निषेध किया है । तथा ये सब परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । तिर्यवायु और मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान तथा देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है, यह स्पष्ट ही है । देवगतिचतुष्कका जघन्य प्रदेशबन्ध असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य जघन्य योगसे करता है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्ध के अन्तरकालका निषेध किया है । तथा देवोंमें इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्ध का जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है । औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेशबन्ध प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ देव करता है, इसलिए इसके अन्तरकालका निषेध किया है और देवों और नारकियों में इसकी कोई प्रतिपक्ष प्रकृति नहीं, इसलिए वहाँ इसका निरन्तर बन्ध होता रहता है । तथा मनुष्यों और तिर्यवों में लेश्या बदलती रहती है, इसलिए पीतलेश्यामें अन्तरकाल सम्भव नहीं, इसलिए इसके अजघन्य प्रदेशबन्ध के अन्तरकालका भी निषेध किया है ।
२५९. पद्मलेश्यामें प्रथम दण्डक और द्वितीय दण्डकका भङ्ग पीतलेश्या के समान है ।
१. ता०प्रवौ 'भज० जह० पलि० सादि० | श्रोरा०' इति पाठः ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org