SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे अंतरं १६५ २५८. तेऊए पंचणा०-पंचंत० जह० जह० पलि० सादि०, उक्क० बेसाग० सादि० | अज० जह० उक० एग० | थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणु ०४ - इत्थि० - स ० - तिरिक्ख० एइंदि० पंचसंठा०-पंच संघ० - तिरिक्खाणु० - आदाउओ० - अप्पसत्थ०थावर -दूर्भाग- दुस्सर-अणादें०-णीचा० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक० बेसाग० सादि० । छदंसणा० - बारसक० -भय-दु० -तेजा० क० वण्ण ०४ - अगु०४ - बादरपजत्त- पत्ते ० - णिमि० - तित्थ० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० एग० । सादासाद०- उच्चा० जह० णाणा० भंगो । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । पुरिस०हस्त-रदि-अरदि-सोग - मणुसग दि-पंचिंदि० - समचदु० - ओरालि • अंगो०- वज्जरि० मणुसाणु०पसत्थ०-थिरादितिष्णियु० सुभग-सुस्सर-आदें० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० ए०, उक्क० अंतो० । दोआउ० देवभंगी । देवाउ' ० - आहारदुग० मणजोगिभंगो । देवगदि४ सम्यग्दृष्टि मनुष्य करता है, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा एक तो ये दोनों सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं । दूसरे नरकमें इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे बाईस सागर, सत्रह सागर और सात सागर कहा है। सातवें नरकमें मिध्यादृष्टि ही मरता है और ऐसे जीवके वहाँ से निकलने के बाद कृष्णलेश्या के कालमें वैक्रियिकद्विकका बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ कृष्णलेश्या में इन प्रकृतियों के अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर बाईस सागर कहा है । यहाँ मनुष्यगतित्रिकका भी जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव भवके प्रथम समय में करता है और ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका भङ्ग सातावेदनीयके समान बन जानेसे उनके समान कहा है । २५८. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्जगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुभंग, दुःखर, अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशबन्ध का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और तीर्थङ्कर जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल एक समय है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और उच्चगोत्रके जघन्य प्रदेशबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, हास्य, रति अरति, शोक, मनुष्यगति, पश्चेन्द्रियजाति, सम चतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनारा चसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुभग, सुस्वर और आदेयके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दो आयुओंका भङ्ग देवोंके समान है । देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । देवगतिचतुष्कके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है । १. आ०प्रतौ 'देवाणु ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy