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________________ १६४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे थीणगिद्धि०३दंडओ णिरयोघं । सादासाद०-पंचणो०-देवगदि-एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि०समचदु०-ओरालि अंगो०-वजरि०-देवाणु०-पर-उस्सा०-आदाव-पसत्थ०-तसादिचदुयु०थिरादितिष्णियु०-सुभग-सुस्सर-आदें जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । दोआउ०-तित्थ० मणभंगो। दोआउ० जह० णत्थि अंतरं । अज० णिरयभंगो। णिरयगदिदुर्ग जह० एग० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो। वेउन्वि०वेउव्वि०अंगो० जह० णत्थि अंतरं । अज. जह० एग०, उक्क० बावीसं साग० सत्तारस० सत्तसाग० । णवरि' मणुसगदि०३ सादभंगो। अन्तरकाल एक समय है। स्त्यानगृद्धित्रिकदण्डकका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, पाँच नोकषाय, देवगति, एकेन्द्रियजाति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्पभनाराचसंहनन, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छास, आतप, प्रशस्त विहायोगति, सादि चार युगल, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर और आदेयके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दो आयु और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। दो आयुओंके जघन्य प्रदेशवन्धका अन्तर काल नहीं है । अघजन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नारकियोंके समान है। नरकगतिद्विकके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्सर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर बाईस सागर, सत्रह सागर और सात सागर है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग साता वेदनीयके समान है। विशेषार्थ—उक्त तीन लेश्याओंमें पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव भक्के प्रथम समयमें करता है। इस जीवके पुनः इस अवस्थाके प्राप्त करने पर दल जाती है, इसलिए यहाँ इन प्रक्रतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। सातावेदनीय आदिके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालके निषेध करनेका यही कारण है। तथा जब एक समय तक पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य प्रदेशबन्ध होता है, तब अजघन्य प्रदेशबन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है । स्त्यानगृद्धित्रिकदण्डकका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है,यह स्पष्ट ही है। सातावेदनीय आदि सब अध्रवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। नरकायु, देवायु और तीर्थक्कर प्रकृतिका भङ्ग मनोयोगी जीवों के समान यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके तृतीय त्रिभागके प्रथम समयमें होता है, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तर नारकियोंमें जैसा कहा है, उस प्रकार घटित कर लेना चाहिए। नरकगतिद्विकका जघन प्रदेशबन्ध असंज्ञी जीव घोलमान योगसे आयबन्धके समय करता है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है। तथा ये दोनों सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। वैक्रियिकद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ आहारक असंयत १. ता०मा०प्रत्योः 'सत्तसाग । णील-काउ० वरि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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