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महाबंधे पदेसबंधाहियारे
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ अन्यतर जीव है । इसका अभिप्राय यह है कि ऐसी योग्यतावाला मनुष्य और देव अन्यतर जीव इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है, इसलिए इनका जघन्य अन्तर साधिक अठारह सागर और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम तेतीस सागर कहा है । तात्पर्य यह है कि किसी जीवको आनत-प्राणतमें उत्पन्न करा कर जघन्य प्रदेशबन्ध करावे और वहाँसे मरनेपर मनुष्य भवके प्रथम समयमें जघन्य प्रदेशबन्ध करावे । ऐसा करनेसे जघन्य अन्तरकाल प्राप्त होता है। तथा किसी एक जीवको सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न कराकर प्रथम समयमें जघन्य प्रदेशबन्ध करावे और वहाँसे मरनेपर मनुष्योंमें उत्पन्न कराकर प्रथम समयमें पुनः जघन्य प्रदेशबन्ध करावे और ऐसा करके उत्कृष्ट अन्तर काल ले आवे । नथा जघन्य प्रदेशबन्धके समय अजघन्य प्रदेशबन्ध नहीं होता, और उपशमश्रोणिमें अन्तमुहूर्त काल तक इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त देखकर वह उक्त प्रमाण कहा है। सातावेदनीय और असातावेदनीय सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिये इनका इस अपेक्षासे यह अन्तर ले आना चाहिये । स्त्यानगृद्धि तीन दण्डकका भङ्ग ग्रैवेयकके समान विचार कर घटित कर लेना चाहिये । अर्थात् जिस प्रकार प्रैवेयकमें इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तर काल नहीं बनता और अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर प्राप्त होता है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। छह दर्शनावरण आदिका जघन्य प्रदेशबन्ध यथायोग्य सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ और प्रथम समयवर्ती आहारक देवके होता है, इसलिये इनके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा जघन्य प्रदेशबन्धके समय अजघन्य प्रदेशबन्ध नहीं होता और इनमेंसे कुछ सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और कुछका आगे नौवें आदि गुणस्थानोंमें बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। आठ कषायोंके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका अभाव तो छह दर्शनावरण आदिके समान ही जानना चाहिए। तथा इनके जघन्य प्रदेशबन्धके समय इनका अजघन्य प्रदेशबन्ध नहीं होता इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल एक समय कहा है। मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान और देवायुका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है, यह स्पष्ट ही है। मनुष्यगतिचतुष्कका जघन्य प्रदेशबन्ध प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवती तद्भवस्थ देव करता है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तर काल का निषेध किया है। तथा शुक्ललेश्यावाले देवाम यसप्रतिपक्ष प्रकृतियों नहीं है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। देवगतिचतुष्कका जघन्य, प्रदेशबन्ध ऐसा प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ और आहारक मनुष्य करता है जो तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध कर रहा है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा नौवें गुणस्थानसे लेकर लौटकर पुनः आठवें गुणस्थानमें आने तक इनका बन्ध नहीं होता और एसा जीव इनका बन्ध होनेके पूर्व मरकर यदि तेतीस सागरकी आयुवाला देव हो जाता है तो साधिक तेतीस सागर तक इनका बन्ध नहीं होता,यह देखकर इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। आहारकद्विकका घोलमान जघन्य योगसे जघन्य प्रदेशबन्ध होता है और ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है।
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