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________________ १५१ उत्तरपगदिपदेसबंधे कालो २४४. मदि०-सुद० पंचणा दंडओ तिरिक्ख०३ पंचिदियदंडओ णqसगभंगो। सादासाद०-सत्तणोक०-चदुआउ०-णिरयग०-चदुजा०-पंचसंठा०-छस्संघड० - णिरयाणु०आदाउजो०-अप्पसत्थ०-थावरादि०४-थिरादितिण्णियु०-दूभग-दुस्सर-अणादें. उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । मणुसगदि०२ उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० ऍकत्तीसं० सादि० अंतोमुहुत्ते० णिक्खमंतस्स । देवगदि०४-समचदु०पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आर्दै०-उच्चागो० उक० ओघ । अणु० ज० ए०, उ० तिण्णि पलि० दे० । एवं अभवसि०-मिच्छा० । इसलिए यहाँ देवगतिचतुष्कके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। सातवें नरकमें पञ्चन्द्रियजाति आदिका निरन्तर बन्ध तो होता ही है। साथ ही वहाँ जानेके पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल तक और वहाँ से निकलनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका बन्ध होता है, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल दो अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर कहा है। मात्र औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नरकमें जानेके पूर्व बन्ध नहीं होता, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धके उत्कृष्ट कालमें एक अन्तर्मुहूर्त कम कर दिया है। तीसरे नरकमें साधिक तीन सागर काल तक तीर्थङ्कर प्रकृतिका निरन्तर बन्ध सम्भव है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर कहा है। २४४. मत्यज्ञानी और ताज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणदण्डक, तिर्यञ्चगतित्रिक और पश्चेन्द्रियजातिदण्डकका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, चार आय, नरकगति, चार जाति, पाँच संस्थान, छह संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि तीन दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यगतिद्विकके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल निकलनेवालेका अन्तर्मुहूर्त अधिक इकतीस सागर है । देवगतिचतुष्क, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, पुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेषार्थ-नपुंसकवेदी जीवों में पाँच ज्ञानावरणादि दण्डक, तिर्यश्चगतित्रिक और पश्चेन्द्रियजाति दण्डकका जो काल कहा है वह यहाँ अविकल घटित हो जाता है, इसलिए यह नसकवेदी जीवोंके समान जाननेकी सूचना की है। सातावेदनीय आदि प्रक्रतियाँ सब परावर्तमान हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। मनुष्यगतिद्विकका निरन्तर बन्ध नौवें अवेयकमें और वहाँ से निकलने पर अन्तर्मुहूर्त काल तक होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर कहा है। उत्तम भोगभूमिमें पर्याप्त होने पर कुछ कम तीन पल्य तक देवगतिचतुष्क आदिका निरन्तर बन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीव मत्यज्ञानी और ताज्ञानी ही होते हैं, इसलिए इनका भङ्ग मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके समान जाननेकी सूचना की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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